Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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लेश्या विषयानुक्रम - १०. गति द्वार
विवेचन नारक एवं देवों में लेश्याओं की स्थिति बताते हुए पूर्व पूर्व की लेश्याओं की उत्कृष्ट स्थिति से आगे की लेश्याओं की जघन्य स्थिति एक समय अधिक बताई है। जबकि जीवाभिगम आदि सूत्रों में नारक देवों की स्थिति को बताते हुए एक समय अधिक नहीं कहा गया है। वास्तव में तो लेश्याओं की स्थिति के अनुसार ही नारक देवों की भवस्थिति को भी समझना चाहिए। जीवाभिगम आदि सूत्रों में एक समय का काल अल्प होने से उसे गौण कर दिया गया है। यहाँ पर उस एक समय की भी विवक्षा कर दी गयी है। अतः दोनों में विरोध नहीं समझना चाहिए। प्रथम देवलोक में तेजोलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक जघन्य स्थिति तीसरे देवलोक के देवों की समझनी चाहिए। दूसरे देवलोक में तेजोलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक जघन्य स्थिति चौथे देवलोक के देवों की समझनी चाहिए। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से समसंधि में आये हुए ऊपरवर्ती देवलोक की अपेक्षा यहाँ पर तेजोलेश्या एवं पद्मलेश्या की स्थिति समझने से आगम पाठ की संगति हो जाती है। ऐसा बहुश्रुत भगवन्त फरमाते हैं।
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१०. गति द्वार
किण्हा णीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेस्साओ । एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जइ ॥ ५६ ॥
कविन शब्दार्थ - अहम्मलेस्साओ - अधर्म लेश्याएं, दुग्गइं उत्पन्न होता है।
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भावार्थ कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या ये तीन अधर्म (अप्रशस्त )
लेश्याएं हैं, इन तीन लेश्याओं से जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।
ते पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ ।
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दुर्गति में, उववज्जइ -.
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जइ ॥ ५७ ॥
भावार्थ - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या ये तीनों धर्म (प्रशस्त) लेश्याएं हैं, इन तीनों लेश्याओं से जीव सुगति में उत्पन्न होता है।
* टिप्पणी - कुछ प्रतियों में 'उववज्जड़' पाठ के बाद 'बहुसो' शब्द भी मिलता है।
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