Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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लेश्या - विषयानुक्रम - ६. स्थिति द्वार
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0000sONLININDOOOOOOOOOOOOOOOOOOccommon युक्त, तीन गुप्तियों से गुप्त, सराग - अल्प राग वाला अथवा वीतरागी, उपशांत और जितेन्द्रिय इन परिणामों से युक्त जीव विशिष्ट शुक्ललेश्या के परिणाम वाला होता है (ये सब लक्षण विशिष्ट शुक्ल लेश्या वाले मनुष्य में पाये जाते हैं)।
विवेचन - प्रस्तुत १२ गाथाओं में छह लेश्या वाले जीवों को पहचानने के पृथक्-पृथक् लक्षण बताये गये हैं।
८. स्थान द्वार असंखिजाणोसप्पिणीण, उस्सप्पिणीण जे समया। संखाईया लोगा, लेसाण हवंति ठाणाई॥३३॥
कठिन शब्दार्थ - असंखिज्जाण - असंख्यात, ओसप्पिणीण - अवसर्पिणी काल के, उस्सप्पिणीण - उत्सर्पिणी' काल के, जे - जो, समया - समय हैं, संखाईया लोगा - संख्यातीत-असंख्य लोक, ठाणाई - स्थान।
भावार्थ - असंख्यात अवसर्पिणी काल के और उत्सर्पिणी काल के जितने समय हैं और संख्यातीत (असंख्य) लोक के जितने प्रदेश हैं उतने लेश्याओं के स्थान होते हैं।
विवेचन - दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है। इसी तरह दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी काल होता है। दोनों मिलाकर २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। असंख्यात उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं शुभ और अशुभ दोनों लेश्याओं के उतने स्थान होते हैं। यह काल की अपेक्षा परिणाम कहा गया है। इसी तरह असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश होते हैं उतने ही लेश्याओं के स्थान होते हैं। यह क्षेत्र की अपेक्षा लेश्याओं के स्थान का परिमाण जानना चाहिए।
___ स्थिति द्वार मुहुत्तद्धं तु जहण्णा, तेत्तीसा सागरो मुहुत्तऽहिया। उक्कोसा होइ ठिई, णायव्वा किण्हलेसाए॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - मुहुत्तद्धं - अन्तर्मुहूर्त, जहण्णा - जघन्य, ठिई - स्थिति, उक्कोसाउत्कृष्ट, मुहुत्तऽहिया - अंतर्मुहूर्त अधिक, सागरा - सागरोपम।
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