Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कर्मप्रकृति - उपसंहार
३११ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शक्ति का छोटे से छोटा अंश (जिसका केवली प्रज्ञा से भी विभाग नहीं हो सके) कितने हैं? इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार से किया गया है - 'प्रत्येक अनुभाग में सब जीवों से अनंतगुणा प्रदेश है .. अर्थात् प्रत्येक परमाणु (रसयुक्त प्रदेश) में रस में अविभागी प्रतिच्छेद (रसांश) सब जीवों से अनंतगुणे हैं। अर्थात् - गाथा के उत्तरार्द्ध में आये हुए ‘प्रदेशाग्र' शब्द का अर्थ - 'रस अनुभाग के अविभागी प्रतिच्छेद' समझना चाहिए। इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३३ गाथा २४ वीं का भावार्थ समझना चाहिए। ___ उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३३ की गाथा २४ वीं का आशय इस प्रकार ध्यान में आया है - 'यद्यपि अनुभाग बंध के अध्यवसाय तो असंख्यात ही होते हैं, तथापि अनुभाग के रस स्पर्द्धक सिद्धों के अनंतवें भाग होते हैं, उन्हीं का इस गाथा में उल्लेख हुआ है। उन रस स्पर्द्धकों में एक गुण से अनंत गुण पर्यन्त रस स्पर्द्धक अंश होते हैं। (जिन्हें इस गाथा में भाव प्रदेश के रूप में बताया है। उनकी संख्या सब जीवों से अनंत गुणी होती है। १७ वीं गाथा में द्रव्य प्रदेशों का और २४ वीं गाथा में भाव (रस) प्रदेशों का वर्णन समझना चाहिए।
.. उपसंहार · तम्हा एएसिं कम्माणं, अणुभागा वियाणिया।
एएसिं संवरे चेव, खवणे य जए बुहो॥२५॥ त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - वियाणिया - जान कर, संवरे - संवर - आस्रव - निरोध में, खवणे- क्षय करने में, जए - यत्न करे, बुहो - बुध-बुद्धिमान् तत्त्वज्ञ। ___भावार्थ - इसलिए इन कर्मों के अनुभाग बन्ध - प्रकृति बंध, स्थिति बंध, रस बंध और प्रदेश बन्ध को जान कर बुध-पण्डित पुरुष इनका संवर करने (आते हुए कर्मों को रोकने) में और पूर्व संचित कर्मों का क्षय करने में यत्न करे। ऐसा मैं कहता हैं।
विवेचन - अध्ययन का उपसंहार करते हुए आगमकार ने कर्म का निरोध या क्षय करने से पूर्व यह जान लेना अनिवार्य बताया है कि वह कर्म किस मूल प्रकृति का है; किस मार्ग के द्वारा यह कर्माणु आ रहा है? कितने तीव्र, मंद या मध्यम परिणाम से बांधा गया है? इत्यादि तदनन्तर साधक, उसका संवर - आते हुए कर्म का निरोध तथा क्षय करे।।
. इस प्रकार प्रस्तुत गाथा में कर्मों के विपाक शुभाशुभ अथवा कुछ परिणामों को जान कर प्रबुद्ध साधु वर्ग को उसके निरोध और क्षय के लिए प्रयत्नशील रहने का उपदेश दिया गया है।
॥ इति कर्मप्रकृति नामक तेतीसवां अध्ययन समाप्त॥
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