Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कर्मप्रकृति - आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियां
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विवेचन - क्रोध, मान, माया और लाभ ये चार कषाय हैं। इनमें से प्रत्येक के अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ये चार-चार भेद होते हैं। ये सब मिला कर १६ भेद हो जाते हैं। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद, इस प्रकार सात अथवा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, इस प्रकार नौ भेद नोकषाय-मोहनीय के हैं। ये नौ भेद क्रोध आदि कषाय को उत्पन्न करने में निमित्त कारण बनते हैं।
आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियां णेरइय-तिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य। देवाउयं चउत्थं तु, आउं कम्मं च चव्विहं॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - णेरइय-तिरिक्खाउं - नरकायु-तिर्यंचायु, मणुस्साउं - मनुष्यायु, देवाउयं - देव आयुष्य। . भावार्थ - आयु-कर्म, चार प्रकार का है। यथा - नरक-आयु, तिर्यंच-आयु, मनुष्यआयु और चौथी देव-आयु।
विवेचन - चार गति के आयुष्य बंध के चार-चार कारण ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे में बतलाये गये हैं। जो इस प्रकार हैं -
नरक आयु बन्ध के चार कारण - - १. महारम्भ - बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार तीव्र परिणामों से कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना महारम्भ है।
२. महापरिग्रह - वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा, महापरिग्रह है। ३. पंचेन्द्रिय वध - पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना पंचेन्द्रिय वध है। ४: कुणिमाहार - कुणिम अर्थात् मांस का आहार करना। इन चार कारणों से जीव नरकायु का बंध करता है। तिर्यंच आयु बन्ध के चार कारण -
१. माया - अर्थात् कुटिल परिणामों वाला - जिसके मन में कुछ हो और बाहर कुछ हो। विषकुम्भ-पयोमुख की तरह ऊपर से मीठा हो, दिल से अनिष्ट चाहने वाला हो।
२. निकृत्ति वाला - ढोंग करके दूसरों को ठगने की चेष्टा करने वाला।
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