Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन
और वह बाल- अज्ञानी जीव उन जीवों को अनेक प्रकार से परिताप उत्पन्न करता है, अपने ही स्वार्थ में तल्लीन बना हुआ वह क्लिष्ट कुटिल जीव अनेक जीवों को पीड़ित करता है । भावाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसण्णियोगे ।
व वियोगे य कहं सुहं से, संभोग काले य अतित्तिलाभे ॥ ९३ ॥
कठिन शब्दार्थ - भावाणुवाएण - भावानुपात - भावों के प्रति अनुराग । भावार्थ भावों के विषय में आसक्त एवं मूर्च्छित बने हुए जीव को उत्पादनन- अपने भावानुकूल पदार्थ को उत्पन्न करने में, उसकी रक्षा करने में, सम्यक् प्रकार से उपयोग करने में, उसका विनाश हो जाने पर तथा वियोग हो जाने पर कैसे सुख प्राप्त हो सकता है ? और उसका उपभोग करने के समय भी उसे तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है।
भावे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो ण उवेइ तुट्ठि ।
२६२
006
अतुट्ठदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥ ६४ ॥
भावार्थ भाव में अतृप्त बना हुआ और भाव विषयक परिग्रह में आसक्त एवं विशेष आसक्त बना हुआ जीव तुष्टि संतोष को प्राप्त नहीं होता, असंतोष रूपी दोष से दुःखी बना हुआ तथा लोभ से मलिन चित्त वाला जीव दूसरों की बिना दी हुई वस्तुओं को ग्रहण करता है । तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य।
-
-
मायामुखं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा ण विमुच्चइ से ॥१५॥
माया
भावार्थ - तृष्णाभिभूत - तृष्णा के वशीभूत बने हुए बिना दी हुई अपने भावानुकूल वस्तु को चुरा कर लेने वाले और भाव विषयक परिग्रह में अतृप्त प्राणी के लोभ रूपी दोष से, मृषावाद की वृद्धि होती है, तथापि वह दुःख से विमुक्त नहीं होता है अर्थात् नहीं छूटता है। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओग काले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥१६ ॥
Jain Education International
भावार्थ मृषा- झूठ बोलने के पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल बोलते समय भी दुरंत - दुष्ट हृदय वाला वह जीव दुःखी ही रहता है इसी प्रकार भाव में अतृप्त जीव बिना दी हुई अपने भावानुकूल वस्तुओं को ग्रहण करता हुआ, अनिश्र - सहाय रहित और दुःखी होता है। भावाणुरत्तस्स णरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ।
तत्थभोगे व किलेस - दुक्खं, णिव्वत्तइ जस्स कण दुक्खं ॥ ६७ ॥
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org