Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 के लिए जीव ने अपार कष्ट उठाया था, उस स्पर्शादि युक्त पदार्थ के उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश और दुःख पाता है अर्थात् तृप्ति न होने के कारण उसे दुःख होता है।
एमेव फासम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोह-परंपराओ। पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥६५॥
भावार्थ - इसी प्रकार अप्रिय स्पर्श के विषय में द्वेष करने वाला जीव उत्तरोत्तर दुःखसमूह की परम्परा को प्राप्त होता है और अतिशय द्वेष से दूषित चित्त वाला वह जीव अशुभ कर्म चय करता है अर्थात् बांधता है, जिससे उसे फिर, विपाक में अर्थात् उन कर्मों का फल भोगने के समय दुःख होता है।
फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह-परंपरेण। ण लिप्पइ भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥८६॥
भावार्थ - जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल का पत्ता जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार स्पर्श में विरक्त मनुष्य शोक-रहित होता है और संसार में रहता हुआ भी इस स्पर्श विषयक उत्तरोत्तर दुःख समूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं (क्रं. ७४ से ८७ तक) में स्पर्शों के प्रति रागद्वेष से मुक्त होने की प्रेरणा की गयी है। मनोभावों के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय
मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेडं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥७॥ कठिन शब्दार्थ - मणस्स - मन को, भावं - भाव को।
भावार्थ - भाव को मन का ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) कहते हैं। जो भाव मनोज्ञ है, उसे राग का कारण कहते हैं और जो भाव अमनोज्ञ है, उसे द्वेष का कारण कहते हैं किन्तु जो उनमें अर्थात् मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकार के भावों में समभाव रखता है, वह वीतराग है।
भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु॥८॥ कठिन शब्दार्थ - भावस्स - भाव का, मणं - मन को।
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