Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रमादस्थान - स्पर्श के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - जिस प्रकार पुष्करिणी पलाश - जल में उत्पन्न हुए कमल का पत्ता जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार रस में विरक्त - रागद्वेष रहित मनुष्य विशोक - शोक रहित होता है और संसार में रहता हुआ भी इस रस विषयक दुःखौघपरम्पराउत्तरोत्तर दुःख-समूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता अर्थात् उसे दुःख नहीं होता।
विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं (क्र. ६१ से ७३ तक) में रसों के प्रति रागद्वेष मुक्ति का उपदेश दिया गया है।
स्पर्श के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥७४॥ कठिन शब्दार्थ - कायस्स - काया का, फासं - स्पर्श को।
भावार्थ - स्पर्श को काया (स्पर्शनेन्द्रिय) का ग्राह्य (विषय) कहते हैं। जो स्पर्श मनोज्ञ है. उसे राग का हेतु-कारण कहते हैं और जो स्पर्श अमनोज्ञ है उसे द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं किन्तु जो उन मनोज्ञ और अमनोज्ञ (प्रिय और अप्रिय) स्पर्शों में समभाव रखता है, वह वीतराग है।
फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु॥७५॥ कठिन शब्दार्थ - फासस्स - स्पर्श का, कायं - काया को।
भावार्थ - काया को स्पर्श का ग्राहक (ग्रहण करने वाला) कहते हैं और स्पर्श को काया का ग्राह्य (ग्रहण करने के योग्य) कहते हैं। ज्ञानी पुरुष मनोज्ञ स्पर्श को राग का हेतु-कारण कहते हैं और अमनोज्ञ स्पर्श को द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं।
फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे सीय-जलावसण्णे, गाहग्गहीए महिसे व रण्णे॥७६॥
कठिन शब्दार्थ - फासेसु - स्पर्शों में, सीय-जलावसण्णे - शीत जलावसन्न, गाहग्गहीएग्राहगृहीत - ग्राह के द्वारा पकड़ा जाने पर, महिसे - महिष - भैंसा, रण्णे - अरण्य - वन में।
भावार्थ - जैसे वन में स्थित शीतजलावसन्न तालाब के ठण्डे जल के स्पर्श में रागातुर बना हुआ भैंसा ग्राह के द्वारा पकड़ा जाने पर विनाश को प्राप्त होता है वैसे ही जो मनुष्य
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