Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तपोमार्ग - आभ्यतर तप के भद 0000000000000000000000000000000000000000
प्रतिसंलीनता एगंतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं॥२८॥
कठिन शब्दार्थ - एगंतं - एकान्त, अणावाए - अनापात-लोगों के आवागमन से रहित स्थान में, इत्थीपसुविवज्जिए - स्त्री पशु आदि से विवर्जित स्थान में, सयणासणसेवणया - शयन और आसन का सेवन करने से, विवित्तसयणासणं - विविक्त शयनासन। ___भावार्थ - एकान्त अनापात (जहाँ स्त्री आदि का आना-जाना न हो) तथा जो स्त्री-पशु
और नपुंसक से वर्जित - रहित हो ऐसे स्थान में शयन आसन करना, विविक्त शयनासन प्रतिसंलीनता तप है।
विवेचन - प्रतिसंलीनता के चार भेद किये गये हैं, उन में से विविक्त चर्या का वर्णन इस गाथा में किया गया है। शेष तीन अर्थात् इन्द्रियसंलीनता, कषायसंलीनता, योगसंलीनता इनका ग्रहण भी यहाँ कर लेना चाहिए। प्रतिसंलीनता का अर्थ है मनोज्ञ और अमनोज्ञ पदार्थों में रागद्वेष नहीं करना।
एसो बाहिरगं तवो, समासेण वियाहिओ। अभिंतरं तवं एत्तो, वुच्छामि अणुपुव्वसो॥२६॥ कठिन शब्दार्थ - बाहिरगं - बाह्य, अन्भिंतरं - आभ्यंतर, अणुपुव्वसो - अनुक्रम से।
भावार्थ - यह बाह्य तप संक्षेप से कहा गया है अब इसके आगे अनुक्रम से आभ्यंतर तप का वर्णन करूँगा।
विवेचन - उपवास आदि से शरीर की दुर्बलता आदि रूप लोगों को दिखाई देने वाला तप है इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं। प्रायश्चित्तादि आंतरिक तप हैं। लोगों को दिखाई देने वाला नहीं है इसलिए इसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप कर्मों की निर्जरा का विशेष कारण बनता है। ..
आभ्यंतर तप के भेद पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभिंतरो तवो॥३०॥
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