Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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___ उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 तीव्र दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त होता है। इसमें शब्द का कुछ भी अपराध नहीं है, वह जीव अपने ही दोष से स्वयं दुःखी होता है।
एगंतरत्ते रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणइ पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, ण लिप्पइ तेण मुणी विरागो॥३६॥
भावार्थ - जो जीव प्रिय शब्द में अत्यन्त अनुरक्त होता है तथा अप्रिय शब्द में द्वेष करता है वह बाल-अज्ञानी जीव अत्यन्त दुःख एवं पीड़ा को प्राप्त होता है, किन्तु वीतराग मुनि उस दुःख से लिप्त नहीं होता है (दुःखी नहीं होता है)।
सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ गरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे॥४०॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दाणुगासाणुगए - शब्दानुगाशानुगत।
भावार्थ - शब्दानुगाशानुगत-शब्द की आशा से उसका अनुसरण करने वाला अर्थात् शब्द . की आसक्ति में फँसा हुआ जीव अनेक प्रकार के चराचर-त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है और वह बाल (अज्ञानी) जीव उन प्राणियों को अनेक प्रकार के शस्त्रों से परिताप उपजाता है और अपने ही स्वार्थ में तल्लीन बना हुआ वह क्लिष्ट-कुटिल जीव अनेक जीवों को पीड़ित करता है।
सद्दाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खण-सण्णियोगे। वए वियोगे य कहं सुहं से, संभोगे-काले य अतित्तिलाभे॥४१॥ कठिन शब्दार्थ - सहाणुवाएण - शब्दानुपात।।
भावार्थ - शब्दानुपात - शब्द के विषय में आसक्त एवं परिगृहीत-मूर्छित बने हुए जीव को प्रिय शब्दादि द्रव्यों को उत्पन्न करने में, उनकी रक्षा करने में, सम्यक् प्रकार से उपयोग करने में, उसका विनाश हो जाने पर और उसका वियोग हो जाने पर कैसे सुख प्राप्त हो सकता है, प्रत्युत दुःख ही होता है। उसका उपभोग करने के समय में भी उसे तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। .
सद्दे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो ण उवेइ तुहि। - अतुट्ठि-दोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥४२॥
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