Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं (क्र. ४८ से ६० तक) में सूत्रकार ने गंध के प्रति रागद्वेष मुक्ति का उपाय बतलाया है।
रस के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेउं अमणुण्णमाह, समो य जो तेसु स वीयरागो॥६१॥ कठिन शब्दार्थ - जिब्भाए - जिह्वा इन्द्रिय का, रसं - रस को।
भावार्थ - रस को, जिह्वा इन्द्रिय का ग्राह्य (विषय) कहते हैं और जो रस मनोज्ञ है उसे राग का हेतु-कारण कहते हैं और जो रस अमनोज्ञ है उसे द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं किन्तु जो उन रसों में समभाव रखता है, वह वीतराग है।
रसस्स जिब्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेडं अमणुण्णमाहु॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - जिन्भं - जिह्वा को, रसस्स - रस का।
भावार्थ - जिह्वा को रस का ग्रहण करने वाली कहते हैं और रस को जिह्वा इन्द्रिय का ग्राह्य कहते हैं। ज्ञानी पुरुष मनोज्ञ रस को राग का हेतु-कारण कहते हैं और अमनोज्ञ रस को द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं।
रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे बडिस-विभिण्णकाए, मच्छे जहां आमिसभोग-गिद्धे ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - रसेसु - रसों में, आमिसभोगगिद्धे - मांस भोजन में आसक्त, मच्छे - मत्स्य का, बडिस-विभिण्णकाए - लोह के कांटे (वडिश) से शरीर बिंध जाता है।
भावार्थ - जैसे रागातुर आमिषभोग गृद्ध - मांस खाने में गृद्ध बना हुआ मच्छ विभिन्न काय - मांस लगे हुए लोह के कांटे से विभिन्न शरीर वाला होकर मृत्यु को प्राप्त करता है, वैसे ही जो मनुष्य रसों में तीव्र गृद्धि रखता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है।
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। दुइंत-दोसेण सएण जंतू, ण किंचि रसं अवरुज्झइ से॥६४॥ भावार्थ - जो जीव अमनोज्ञ रस में तीव्र - द्वेष को प्राप्त होता है, वह प्राणी अपने ही
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