Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रमादस्थान - गंध के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय २८१ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु॥४६॥ कठिन शब्दार्थ - गंधस्स - गंध का, घाणं - घ्राणेन्द्रिय को।
भावार्थ - घ्राणेन्द्रिय को गन्ध का ग्राहक (ग्रहण करने वाला) कहते हैं और गन्ध को घ्राणेन्द्रिय का ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) कहते हैं। ज्ञानी पुरुष समनोज्ञ गन्ध को राग का हेतुकारण कहते हैं और अमनोज्ञ गन्ध को द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं।
गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव णिक्खमंते॥५०॥
कठिन शब्दार्थ - गंधेसु - गंध में, ओसहिगंधगिद्धे - औषधि के गन्ध में आसक्त, . . सप्पे - सर्प, बिलाओ - बिल से, णिक्खमंते - निकल कर।
भावार्थ - जो जीव गन्ध में तीव्र गृद्धि-आसक्ति रखता है वह चन्दनादि औषधियों की सुगन्ध में गृद्ध-आसक्त एवं रागातुर होकर अपने बिल से बाहर निकले हुए सर्प के समान अकाल में ही विनाश को अर्थात् मृत्यु को प्राप्त होता है।
ये यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। दुइंतदोसेण सएण जंतू, ण किंचि गंधं अवरुज्झइ से॥५१॥
भावार्थ - जो जीव दुर्गन्ध में तीव्र द्वेष को प्राप्त होता है वह प्राणी अपने ही दुर्दान्त (तीव्र) दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त होता है, इसमें गन्ध का कुछ भी अपराध नहीं है किन्तु वह जीव अपने ही दोष से स्वयं दुःखी होता है।
एगंतरत्ते रुइरंसि गंधे, अतालिसे से कुणइ पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, ण लिप्पइ तेण मुणी विरागो॥२॥
भावार्थ - जो जीव रुचिर-श्रेष्ठ गन्ध में अत्यन्त अनुरक्त होता है और दुर्गन्ध से द्वेष करता है वह बाल-अज्ञानी जीव अत्यन्त दुःख एवं पीड़ा को प्राप्त होता है किन्तु वीतराग मुनि उस दुःख से लिप्त नहीं होता है।
गंधाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ गरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अतट्टगुरू किलिट्टे॥५३॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org