Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रमादस्थान - शब्द के प्रति रागद्वेष से मुक्त होने का उपाय 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___ भावार्थ - शब्द में अतृप्त बना हुआ और शब्द विषयक परिग्रह में आसक्त एवं विशेष आसक्त बना हुआ जीव संतोष को प्राप्त नहीं होता। असंतोष रूपी दोष से दुःखी बना हुआ तथा लोभ से मलिन चित्त वाला जीव दूसरों की अदत्त - बिना दी हुई वस्तुओं को ग्रहण (चोरी) करता है।
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा ण विमुच्चइ से॥४३॥ कठिन शब्दार्थ - तण्हाभिभूयस्स - तृष्णाभिभूत, लोभदोसा - लोभ रूपी दोष से।
भावार्थ - तृष्णाभिभूत - तृष्णा के वशीभूत बने हुए, बिना दिये ही प्रिय शब्द वाले द्रव्यों को चुरा कर लेने वाले और शब्द विषयक परिग्रह में अतृप्त प्राणी के लोभ रूपी दोष से मायामृषावाद की वृद्धि होती है तथापि वह दुःखं से नहीं छूटता है।
मोसस्स पच्छा य -पुरत्थओ य, पओग-काले य दुही दुरंते।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥४४॥ ... भावार्थ - झूठ बोलने से पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल - झूठ बोलते समय भी दुरन्त (दुष्ट हृदय वाला) जीव दुःखी ही रहता है, इसी प्रकार शब्द में अतृप्त जीव बिना दिये हुए प्रिय शब्दादि द्रव्यों को ग्रहण करता हुआ अनिश्र - सहाय रहित और दुःखी होता है। . सद्दाणुरत्तस्स णरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि।
तत्थोवभोगे वि किलेस-दुक्खं, णिव्वत्तइ जस्स कएण दुक्खं॥४५॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दाणुरत्तस्स - शब्द में आसक्त बने हुए।
भावार्थ - इस प्रकार शब्द में आसक्त बने हुए मनुष्य को सुख कहाँ से हो सकता है? अर्थात् उसे कभी भी किञ्चिन्मात्र सुख प्राप्त नहीं हो सकता। जिन प्रिय शब्दादि द्रव्यों को प्राप्त करने के लिये जीव ने अपार कष्ट उठाया था उनके उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश और दुःख पाता है (तृप्ति न होने के कारण उसे दुःख होता है)। . एमेव सहम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोह-परंपराओ।
पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥४६॥ भावार्थ - इसी प्रकार अप्रिंय शब्द में द्वेष करने वाला जीव दुःखौघपरम्परा - उत्तरोत्तर
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