Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - रूवम्मि - रूप में, पओसं गओ - प्रद्वेष करने वाला, दुक्खोह परंपराओ - दुःख ओघपरम्परा - दुःखों की परम्पराएं, पदुद्दचित्तो - द्वेष युक्त चित्त वाला, चिणाइ - संचय करता है, कम्मं - कर्मों का, पुणो - पुनः, दुहं - दुःख रूप, विवागे. - विपाक में। ____ भावार्थ - इसी प्रकार अमनोज्ञ रूप में द्वेष करने वाला जीव उत्तरोत्तर दुःख समूह की परंपरा को प्राप्त होता है और अतिशय द्वेष से दूषित चित्त वाला वह जीव अशुभ कर्म को बांधता है। जिससे उसे फिर विपाक के समय, कर्मों का फल भोगते समय दुःख होता है।
रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह परंपरेण। ण लिप्पड़ भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी-पलासं॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - रूवे - रूप में, विरत्तो - विरक्त, मणुओ - मनुष्य, विसोगो - . शोक-रहित, दुक्खोह परंपरेण - दुःखों की परंपरा से, भवमझे - संसार में, संतो वि - रहता हुआ भी, जलेण - जल से, पोक्खरिणी-पलासं - पुष्करिणी (कमलिनी) का पत्ता।
भावार्थ - जिस प्रकार पुष्करिणी पलाश - जल में उत्पन्न हुआ कमल का पत्ता जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार रूप में विरक्त (रागद्वेष रहित) मनुष्य शोक-रहित होता है और संसार में रहता हुआ भी इस रूपविषयक दुःखौघपरम्परा - दुःख समूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं (क्रं. २१ से ३४ तक) में रूप से संबंधित राग द्वेष का त्याग करने का उपाय बताया गया है। रूप को चक्षु का गाह्य विषय और चक्षु को रूप का ग्राहक बताया है। इस प्रकार दोनों में ग्राह्य-ग्राहक भाव है। रूप प्रिय है. तो राग का और अप्रिय है तो द्वेष का कारण बन जाता है। वीतरागी साधक दोनों पर समभाव रखता है। वह प्रिय पर राग
और अप्रिय पर द्वेष नहीं करता। जो मनोज्ञ रूप पर अनुरक्त और आसक्त होता है, वह प्रकाश लोभी पतंगे की तरह अकाल में ही विनष्ट हो जाता है इसी प्रकार जो अमनोज्ञ रूप पर द्वेष करता है वह तत्काल दुःख पाता है। अच्छे बुरे रूप का इसमें कोई अपराध नहीं, यह व्यक्ति की दृष्टि और मनोभावों पर निर्भर है। इस प्रकार इन गाथाओं में चक्षुरिन्द्रिय और रूप दोनों पर नियन्त्रण रखने की प्रेरणा दी गई है। जो रूपवान् वस्तुओं के बीच रहते हुए भी जल कमलवत् निर्लिप्त रहता है, वह शांति और समाधि को प्राप्त करता है।
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