Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पमायहाणं णामं बत्तीसइमं अज्झयणं
प्रमादस्थान नामक बत्तीसवां अध्ययन
प्रमाद, कर्म का मूल है। प्रमादस्थान नामक इस बत्तीसवें अध्ययन में विविध पहलुओं से प्रमाद के स्थलों का निर्देश करके उनसे बचने तथा अप्रमत्त वीतरागी साधक बनने की प्रेरणा की गयी है। इस अध्ययन में १११ गाथाएं हैं। उसमें से प्रथम गाथा इस प्रकार है -
अच्चंतकालस्स समूलगस्स, सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो। तं भासउ में पडिपुण्णचित्ता, सुणेह एगंतहियं हियत्थं ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - अच्चंतकालस्स - अत्यन्तकाल - अनादिकालिक, समूलगस्स- मूल सहित, सव्वस्स दुक्खस्स - सभी दुःखों से, पमोक्खो - प्रमोक्ष - मुक्ति का उपाय, भासउ - कहता हूं, पडिपुण्णचित्ता - प्रतिपूर्णचित्त - पूर्ण एकाग्रचित्त होकर, सुणेह - सुनो, एगंतहियं - एकान्त हितकारी, हियत्थं - हितार्थ - कल्याण के लिए। ___ भावार्थ - गुरु महाराज फरमाते हैं कि हे शिष्यो! अत्यन्तकाल - अनादिकाल से मिथ्यात्वादि मूल सहित रहे हुएं सभी दुःखों से प्रमोक्ष - छुड़ा कर मोक्ष देने वाला जो एकान्त हितकारी और हितार्थ - कल्याणकारी उपाय है, उसका मैं कथन करता हूँ। अतः प्रतिपूर्णचित्त - एकाग्रचित्त हो कर सुनो। . - विवेचन - वादीवेतालशांतिसूरि ने इस गाथा में प्रयुक्त 'अच्चंतकालस्स' शब्द की टीका करते हुए लिखा है "अन्तमतिकान्तोऽत्यन्तो, वस्तुनश्च द्वावन्तौ-आरम्भक्षणः समाप्तिक्षणश्च, तथा च अन्यैः अपि उच्यते 'उभयान्तापरिच्छिन्ना वस्तुसत्ता नित्या इति' तत्र इह आरम्भक्षणः अन्तः परिगृह्यते तथा च अत्यन्त:- अनादि कालो यस्य सः अयम् अत्यन्तकालः।"
अर्थ - वस्तु के दो प्रकार के अन्त होते हैं, यथा - आरम्भक्षण (वस्तु का प्रारम्भ) और समाप्तिक्षण। दूसरे आचार्यों ने भी ऐसा कहा है, जिस वस्तु में आरम्भक्षण और समाप्तिक्षण न पाये जाते हों अर्थात् जिसका आदि और अन्त न हो, उस वस्तु को नित्य कहते हैं। इस गाथा में प्रयुक्त अन्त शब्द का अर्थ आरम्भ क्षण लिया जाता है अर्थात् जिस वस्तु का आरम्भ (प्रारम्भ) आदि न पाया जाता हो उसे अनादि कहते हैं। इसीलिए यहाँ अनादि काल को
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