Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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• उत्तराध्ययन् सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOcc00000
कठिन शब्दार्थ- काय-समाहारणयाए - कायसमाधारणता से, चरित्तपज्जवे - चारित्र की पर्यायों को, अहक्खाय चरित्तं - यथाख्यात चारित्र को, केवलिकम्मंसे - केवलिकर्मांश का।
भावार्थ - उत्तर - कायसमाधारणता से जीव चारित्र की पर्यायों को विशुद्ध करता है। चारित्र की पर्यायों को विशुद्ध करके यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करता है। यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करके चार केवलिकर्मांश - केवली अवस्था में शेष रहे हुए चार भवोपग्राही अघाती कर्मों का क्षय कर देता है, इसके बाद सिद्ध हो जाता है अर्थात् उसके सब कार्य सिद्ध हो जाने . से कृतकृत्य हो जाता है, बुद्ध हो जाता है अर्थात् केवलज्ञान केवलदर्शन से सम्पूर्ण लोकालोक को जानने और देखने लग जाता है, सब कर्मों से मुक्त हो जाता है, कर्माग्नि को बुझा कर शीतल हो जाता है और समस्त दुःखों का अंत कर देता है।
विवेचन - काया को संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में भलीभांति लगाये रखना कायसमाधारणा है। कायसमाधारणा से चारित्र पर्यायों की विशुद्धि होती है। विशुद्ध चारित्र पर्यायों से यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है जिससे केवली के शेष चार कर्मों का क्षय कर डालता है. फिर उसे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होने में देर नहीं लगती। .
५९. ज्ञान सम्पन्नता णाण-संपण्णयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ज्ञान-सम्पन्नता (श्रुतज्ञान की प्राप्ति) से जीव को क्या लाभ होता है?
णाण-संपण्णयाए णं सव्वभावाहिगमं जणयइ, णाणसंपण्णे णं जीवे चाउरते संसार-कतारे ण विणस्सइ।
जहा सूई ससुत्ता, पडियावि ण विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते, संसारे ण विणस्सइ॥१॥
णाण-विणय-तव-चरित्त-जोगे संपाउपाइ, ससमय-परसमय-विसारए य असंघायणिज्जे भवइ॥
कठिन शब्दार्थ - णाण-संपण्णयाए - ज्ञान सम्पन्नता से, सव्वभावाहिगमं - सर्वभावों का अधिगम-बोध, ण विणस्सइ - नष्ट नहीं होता, ससुत्ता - सूत्र (धागे) सहित, सूइ -
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