Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - योग निरोध २२३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर्म की २८ प्रकृतियों का क्षय करता है तत्पश्चात् ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की है और अंतराय की ५ प्रकृतियों का क्षय करके केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
७. योग निरोध अहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तद्धावसेसाए जोगणिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइं सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं णिरंभइ मणजोगं णिरुभित्ता वयजोगं णिरंभइ वयजोगं णिरुभित्ता कायजोगं णिरुंभइ कायजोगं णिरूभित्ता आणापाणणिरोहं करेइ, आणापाणणिरोहं करित्ता, ईसिपंचहस्सक्खरुच्चारणद्धाए य णं अणगारे समुच्छिण्णकिरियं अणियट्टिसुक्कज्झाणं झियायमाणे वेयणिजं आउयं णामं गोयं च एए चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ ॥७२॥ .
कठिन शब्दार्थ - अह - अथ, आउयं - शेष आयु को, पालइत्ता - भोग कर, अंतोमुहुत्तद्धावसेसाउए - अंतर्मुहूर्त्तकाल परिमित आयु शेष रहने पर, जोगणिरोहं - योगनिरोध, करेमाणे - करता हुआ, सुहमकिरियं अप्पडिवाई - सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती, सुक्कज्झाणं - शुक्लध्यान को, झायमाणे - ध्याता हुआ, तप्पढमयाए - सर्वप्रथम, मणजोगं - मनोयोग का, णिरुम्भइ - निरोध करता है, वइजोगं - वचन योग का, आणापाणणिरोहं - आनापानश्वासोच्छ्वास का निरोध, ईसि - ईषत्-स्वल्प (मध्यम गति से), पंचहस्सक्खरुच्चारणद्धाएपांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितने काल में, समुच्छिण्णकिरियं अणियट्टिसुक्कज्झाणं - समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति नामक शुक्लध्यान को।
भावार्थ - केवलज्ञान के बाद अपनी अवशिष्ट आयु को भोग कर जब आयु का अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाता है तब जीव योगों का निरोध करने के लिए सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान के तीसरे पाद का ध्यान करता हुआ सब से पहले मन-योग का निरोध करता है मन-योग का निरोध कर के वचन-योग का निरोध करता है, वचनयोग का : निरोध करके काय-योग का निरोध करता है काययोग का निरोध करके आनापाननिरोध - श्वासोच्छ्वास का निरोध करता है, श्वासोच्छ्वास का निरोध करके 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पाँच हस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय तक वह अनगार (अयोगी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org