Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तपोमागे - भिक्षाचयो तप
२४१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य आहिया उ जे भावा। एएहिं ओमचरओ, पज्जवचरओ भवे भिक्खू॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - ओमचरओ - अवम-चरक - ऊनोदरी करने वाला, पज्जवचरओ - पर्यवचरक - पर्याय ऊनोदरी तप करने वाला।
__भावार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो भाव कहे गये हैं इनसे अवमचरक - ऊनोदरी करने वाला साधु पर्याय से ऊनोदरी करने वाला होता है।
भिक्षाचर्या तप अट्ठविह-गोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अण्णे, भिक्खायरियमाहिया॥२५॥
कठिन शब्दार्थ - अट्ठविह - आठ प्रकार की, गोयरग्गं - गोचराग्र - प्रधान गोचरी, सत्तेव - सात प्रकार की, एसणा - एषणा, अभिग्गहा - अभिग्रह, जे अण्णे - जो अन्य, भिक्खायरियं - भिक्षाचर्या तप, आहिया - कहे गये हैं।
- भावार्थ - आठ प्रकार की गोचराग्र-गोचरी और सात प्रकार की एषणा और इसी प्रकार के जो दूसरे अभिग्रह हैं, वे सब भिक्षाचरी में कहे गये हैं, अर्थात् इन्हें भिक्षाचरी तप कहते हैं। भिक्षाचरी का दूसरा नाम वृत्तिसंक्षेप है अर्थात् प्रतिदिन की जो गोचरी है उसमें अभिग्रह धारण करके कमी करने को वृत्तिसंक्षेप कहते हैं।
विवेचन - गाथा नं० १९ में गोचरी के छह भेद बतलाए गये हैं। उन्हीं छह को विशेष रूप से इस गाथा में आठ भेद कर बतलाये हैं। पेटा, अर्धपेटा, गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, बाह्यशंबूकावर्ता, आभ्यन्तर शंबूकावर्ता, गमन (गता) और प्रत्यागमन (प्रत्यागता)।
पिण्डेषणा के सात भेद हैं - - १. संसृष्टा एषणा - भोजन की सामग्री से भरे हुए हाथ एवं पात्र से भिक्षा लेना। २. असंसृष्टा एषणा - भोजन की सामग्री से नहीं भरे हुए हाथ एवं पात्र से भिक्षा लेना।
३. उद्धृता एषणा - रसोई घर से बाहर लाकर जो थाली आदि में अपने निमित्त भोजन रखा गया हो उसको लेना।
४. अल्प लेपिका एषणा - निर्लेप भुंजे हुए चना आदि लेना।
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