Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के... - प्रेय-द्वेष मिथ्यादर्शन विजय २२१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 और पश्चात्तापजनक होते हैं। इस प्रकार का निरन्तर विचार करने जीव इन कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है।
क्रोध पर विजय करने से क्षमा, मान पर विजय करने से नम्रता, माया पर विजय करने से सरलता तथा लोभ पर विजय करने संतोष गुण की प्राप्ति होती है। क्षमा के कारण क्रोध के उदय से बंधने वाले क्रोध मोहनीय (क्रोध करने से अवश्य भोगने योग्य कर्माणुओं का आत्मा के साथ संबंध-क्रोध वेदनीय) का बंध नहीं होता तथा पूर्व में बंधे हुए कर्मों का भी क्षय हो जाता है। क्षमा की तरह ही नम्रता, सरलता और संतोष का फल क्रमशः मान वेदनीय, माया वेदनीय, लोभ वेदनीय का बंध नहीं होना और पूर्वबद्ध का निर्जरित होना समझना चाहिये।
७. प्रेय-द्वेष मिथ्यादर्शन विजय पिज्ज-दोस-मिच्छादसण-विजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्रेय्य (प्रेम) द्वेष-मिथ्या-दर्शन विजय - राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? . ____ पिज्ज-दोस-मिच्छा-दसण-विजएणं णाणदंसण-चरित्ताराहणयाए अन्भुट्टेइ, अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्विं अट्ठवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्याएइ, पंचविहं णाणावरणिज्ज, णवविहं दंसणावरणिज्जं, पंचविहं अंतरायं एए तिण्णि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ तओ पच्छा अणुत्तरं अणंतं कसिणं पडिपुण्णं णिरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावं केवलवरणाणदंसणं समुप्पाडेइ, जाव सजोगी हवइ ताव ईरियावहियं कम्मं णिबंधइ सुहफरिसं दुसमयट्टिइयं, तंजहा - पढमसमए बद्धं बिइयसमए वेइयं तइयसमए णिज्जिण्णं, तं बद्धं पुढें उदीरियं वेइयं णिज्जिण्णं, सेयाले य अकम्मं यावि भवइ॥७१॥
कठिन शब्दार्थ - पिज्ज-दोस-मिच्छा-दसण-विजएणं - प्रेय्य (प्रेम-राग) और द्वेष तथा मिथ्यादर्शन के विजय से, णाणदंसण-चरित्ताराहणया - ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए, अब्भुट्टेइ - उद्यत होता है, अट्ठविहस्स कम्मस्स - आठ प्रकार के कर्मों की, कम्मगंठि-विमोयणयाए - कर्मग्रंथी को (विमोचन) खोलने के लिए, तप्पढमयाए -
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