Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१६४
. उत्तराध्ययन सूत्र - अट्ठाईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 संयुक्त कर्मों को नष्ट कर उसे शुद्ध बनाना है। इन चारों के द्वारा आत्मा कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाती है।
उपसंहार खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य। . सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो॥३६॥ तिबेमि॥
कठिन शब्दार्थ - खवित्ता - क्षय करके, पुव्वकम्माई - पूर्व कर्मों का, संजमेण - संयम से, तवेण - तप से, सव्वदुक्खपहीणट्ठा - सभी दुःखों को नष्ट करने के लिये, पक्कमंति - पराक्रम करते हैं, महेसिणो - महर्षिगण।
भावार्थ - महर्षि, मुनि महात्मा संयम और तप से पूर्वकृत कर्मों को क्षय कर के सभी दुःखों से रहित होने के लिए ज्ञान दर्शन चारित्र में पराक्रम (पुरुषार्थ) करते हैं और उसके फलस्वरूप-सिद्धि गति प्राप्त करते हैं॥३६॥ ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में आगमकार ने इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए और तप संयम से कर्मों की मुक्ति बताई है। सम्यग्ज्ञानादि प्रथम तीन का संयम में और सम्यक् तप का तप में इस प्रकार चारों का संयम और तप में ग्रहण किया गया है। इन दोनों उपायों से आत्मा सर्व कर्मों से रहित बन कर मोक्ष के शाश्वत सुखों को प्राप्त करती है।
॥ मोक्षमार्गगति नामक अट्ठाईसवां अध्ययन समाप्त॥
६
3
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org