Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - विनिवर्तना १९३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवित्तसयणासणयाए णं चरित्तगुत्तिं जणयइ, चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवण्णे य अट्ठविहं कम्मगंठिं णिज्जरेइ॥३१॥ - कठिन शब्दार्थ - विवित्तसयणासणयाए - विविक्त शयनासन के सेवन से, चरित्तगुत्तिंचारित्र गुप्ति - चारित्र रक्षा, विवित्ताहारे - शुद्ध सात्त्विक, विकृति रहित एवं पवित्र आहारी, दढचरित्ते - दृढ़ चारित्री, एगंतरए - एकान्तरत (एकान्तप्रिय), मोक्खभावपडिवण्णे - मोक्षभाव प्रतिपन्न - मोक्ष भाव से सम्पन्न, अट्ठविहं कम्मगंठिं - आठ प्रकार की कर्म ग्रंथियों की, णिज्जरेइ - निर्जरा कर लेता है।
भावार्थ - उत्तर - स्त्री-पशु-नपुंसक से रहित एकान्त स्थान, शयन, आसन का सेवन करने से चारित्र की रक्षा होती है और चारित्र की रक्षा करने वाला जीव विविक्ताहारी होता है अर्थात् विगयादि में आसक्त नहीं होता। ऐसा जीव चारित्र में दृढ़ एकान्त रत अर्थात् एकान्त सेवी और मोक्षभाव प्रतिपन्न - मोक्ष का साधक होता है और आठों प्रकार के कर्मों की ग्रंथि का भेदन करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
- विवेचन - विविक्त शयनासन का अर्थ है - जन-सम्पर्क एवं कोलाहल से रहित, स्त्रीपशु-नपुंसक के निवास से असंसक्त, शांत एकान्त निरवद्य स्थान। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३५ गाथा ६ में- 'सुसाणे सुण्णागारे य रुक्खमूले व एगओ' - श्मशान, शून्यगृह एवं वृक्षमूल को विविक्त स्थान बताया है।
.. जो पदार्थ अपने पूर्व के रस को छोड़ कर अन्य रस को प्राप्त हो चुका है, उसे विकृत या विकृति कहते हैं तथा चित्त में विकार उत्पन्न करने वाले जो पदार्थ हैं, उनको भी विकृति कहते हैं। अतः शास्त्रकारों ने दुग्ध, दधि, नवनीत और घृत आदि को भी विकृति में परिगणित किया है। जिस पुरुष ने इन विकृतियों का त्याग कर दिया है, उसे विविक्ताहारी कहते हैं तथा 'चारित्र गुप्त' शब्द 'गुप्त-चारित्र' के अर्थ में है।
३२. विनिवर्तना विणिवट्टणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! विनिवर्तना (विषयों के त्याग) से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org