Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - सद्भाव प्रत्याख्यान २०१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
पूर्व के पैतीसवें आहार प्रत्याख्यान के वर्णन में अल्पकालीन अनशन रूप आहार का त्याग समझना चाहिए। यहाँ पर भक्त प्रत्याख्यान में जीवन पर्यन्त आहार का त्याग समझना चाहिए। . . .
४१. सद्भाव प्रत्याख्यान सब्भावपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सद्भावप्रत्याख्यान (प्रवृत्ति मात्र का त्याग करने) से जीव को क्या लाभ होता है?
सब्भावपच्चक्खाणेणं अणियटिं जणयइ, अणियट्टिपडिवण्णे य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तंजहा- वेयणिज्ज आउयं णामं गोयं, तओं पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वायइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - सब्भावपच्चक्खाणेणं - सद्भाव प्रत्याख्यान से, अणियटिं - अनिवृत्ति रूप शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद की, केवलिकम्मंसे - केवलि कर्मांश, वेयणिज्ज - वेदनीय, आउयं - आयुष्य, णामं - नाम, गोयं - गोत्र।
. .. भावार्थ - उत्तर - सद्भावप्रत्याख्यान (प्रवृत्तिमात्र का त्याग करने से) जीव अनिवृत्तिकरण
को प्राप्त होता है. और अनिवृत्तिकरण अर्थात् शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुआ अनगार चार केवलिकरांश - केवली अवस्था में शेष रहे हुए भवोपग्राही अर्थात् अघाती कर्मों की ग्रन्थियों को क्षय करता है यथा - वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र। इसके बाद सिद्ध हो जाता है अर्थात् कृतकृत्य हो जाता है, बुद्ध हो जाता है अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शन से सम्पूर्ण लोकालोक को जानने और देखने लग जाता है, कर्मों से मुक्त हो जाता है, कर्म रूपी अग्नि को बुझा कर शीतल हो जाता है और सभी दुःखों का अन्त कर देता है।
विवेचन - जो सबसे अंतिम, पूर्ण पारमार्थिक प्रत्याख्यान हो, जिसमें सर्व क्रियाओं, कर्मों, योगों, कषायों आदि का पूर्णतः परित्याग हो जाता है, उसे सद्भाव प्रत्याख्यान कहते हैं। यह प्रत्याख्यान सर्व संवर रूप या शैलेशी अवस्था रूप होता है, इसका अधिकारी १४वें गुणस्थान वाली आत्मा होता है। यह पूर्ण प्रत्याख्यान है, इसके बाद कोई भी प्रत्याख्यानं करना शेष नहीं रहता। ऐसा साधक शुक्लध्यान के चतुर्थ पाद पर आरूढ़ हो जाता है, फिर उसे जन्म मरण रूप संसार में पुनः लौटना नहीं होता। इसे ही अनिवृत्ति कहते हैं फिर उसके, केवली के शेष भवोपग्राही चार अघाती कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।
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