Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१६२ . . उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अनिच्छा उत्पन्न होने से जीव दूसरे जीवों के प्रति अनुकम्पा करने वाला अनुद्भट-निरभिमानी चिन्ता-शोक रहित होता है और चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है। ..
विवेचन - मूल पाठ में आए 'सुहसाए' शब्द का 'सुखशायिता' अनुवाद भी पू० श्री आत्मारामजी म. सा. वाली प्रति में किया है। उसके अनुसार यहाँ पर यह अर्थ होता है कि - स्थानांग सूत्र में बताई हुई चार प्रकार की सुख शय्या में विश्राम करने वाले जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? उस फल को इस बोल में बताया गया है।
३०. अप्रतिबद्धता अप्पडिबद्धयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अप्रतिबद्धता (विषय सुखों में आसक्ति का त्याग करने) से जीव को क्या लाभ होता है? .
अप्पडिबद्धयाए णं णिस्संगत्तं जणयइ, णिस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते . दिया य राओ य असज्जमाणे अप्पडिबद्धे यावि विहरइ॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पडिबद्धयाए - अप्रतिबद्धता से, णिस्संगतं - निःसंगता को, एगे - एकाकी (अकेला-आत्मनिष्ठ), एगग्गचित्ते - एकाग्रचित्त, दिया वा राओ - दिन और रात, असज्जमाणे - अनासक्त, अप्पडिबद्धे - अप्रतिबद्ध।
भावार्थ - उत्तर - अप्रतिबद्धता (अनासक्ति) से निस्संगता (स्त्र्यादिक की संगति रहितपना) प्राप्त होती है। निस्संगता से जीव एक अर्थात् रागद्वेष रहित होकर एकाग्र चित्त वाला होता है तथा दिन और रात किसी भी पदार्थ में अनुराग नहीं रखता हुआ अप्रतिबद्ध भाव से विचरता है।
विवेचन - अप्रतिबद्धता का अर्थ है - किसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रति आसक्तिपूर्वक न बंधना - प्रतिबन्ध युक्त न होना अथवा मन में किसी भी पदार्थ पर आसक्तिममता न रखना।
३१. विविक्त शयनासन विवित्तसयणासणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! विविक्तशयनासनता - स्त्री-पशु-नपुंसक रहित स्थान, शयन और आसन का सेवन करने से जीव को क्या लाभ होता है?
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