Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - छब्बीसवाँ अध्ययन
पुढवी - आउक्काएं, तेऊ - वाऊ वणस्सइ - तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥ ३० ॥ पुढवी - आउक्काए, तेऊ - वाऊ - वणस्सइ - तसाणं । पडिलेहणा आउत्तो, छण्हंपि आराहओ होइ ॥ ३१ ॥ कठिन शब्दार्थ - पडिलेहणं - प्रतिलेखना, कुणंतो करता हुआ, मिहो - परस्पर, कहं - कथा - वार्तालाप, जणवय कहं जनपद कथा, देइ - देता है, पच्चक्खाणं प्रत्याख्यान, वाएइ वाचना देता है, सयं - स्वयं, पडिच्छइ - वाचना लेता है, पडिलेहणा पत्तो - प्रतिलेखना में प्रमाद, विराहओ - विराधक, आराहओ - आराधक ।
भावार्थ - प्रतिलेखना करता हुआ जो साधु आपस में कथा - वार्तालाप करता है अथवा जनपद कथा, देशकथा आदि करता है, दूसरे को पच्चक्खाण कराता है अथवा दूसरे को वाचना देता है (पढ़ाता है) अथवा स्वयं वाचना लेता ( पढ़ता ) है वह प्रतिलेखना में प्रमाद करने के दोष का भागी होता है।
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इस प्रकार प्रमत्तभावपूर्वक प्रतिलेखना करने वाला साधु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छहों कायों का विराधक होता है।
प्रतिलेखना में उपयोग रखने वाला साधु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छहों काय का संरक्षक एवं आराधक होता है ।
विवेचन - प्रतिलेखना के समय जब साधक परस्पर संभाषण तथा पठन पाठनादि क्रियाएं नहीं करता तब स्वतः ही उसका उपयोग प्रतिलेखना में लग जाता है, इससे प्रमाद नहीं रहता और प्रमाद नहीं रहने से जीवों की विराधना नहीं होती । विराधना का न होना ही आराधकता है । इसी कारण अप्रमत्त होकर प्रतिलेखन करने वाले साधक को आराधक कहा गया है।
तृतीय पोरिसी की दिनचर्या
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तइयाए पोरिसीए, भत्तं पाणं गवेसए ।
छण्हं अण्णयरागम्मि, कारणम्मि समुट्ठिए ॥ ३२ ॥
कठिन शब्दार्थ - भत्तं - आहार, पाणं- पानी, गवेसए - गवेषणा करे, अण्णयरागम्मिकिसी एक, समुट्ठिए - उपस्थित होने पर ।
वायुकाय,
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