Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सामाचारी - रात्रि चर्या
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इसी अध्ययन की ४३ वी गाथा में बताया गया है कि - प्रतिक्रमण पूरा होने पर स्वाध्याय काल की प्रतिलेखना कर स्वाध्याय करे। दिन और रात की चार संध्याएं कही गई हैं। दिन में प्रातः काल तथा १२ बजे से १ बजे तक मध्याह्न काल। इसी प्रकार शाम को संध्याकाल और रात्रि में १२ बजे से १ बजे तक अर्द्ध रात्रि, इन चार संध्या कालों में स्वाध्याय करना निषिद्ध है। यदि कोई करे तो निशीथ सूत्र के १६ वें उद्देशक में इसका प्रायश्चित्त बतलाया है। यदि सूर्यास्त का समय प्रतिक्रमण की समाप्ति का समय होता तो प्रतिक्रमण समाप्त होते ही स्वाध्याय करना कैसे बतलाया जाता क्योंकि वह तो संध्या का समय है। इसलिए संध्या के अस्वाध्याय की समाप्ति के लगभग ही प्रतिक्रमण की समाप्ति का समय है। उसके बाद स्वाध्याय का समय आ जाता है।
दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में बतलाया गया है कि - पडिमाधारी अप्रतिबद्ध विहारी, घोर पराक्रमी, अग्नि या सिंह के आक्रमण से अपनी काया को विचलित नहीं करने वाले मुनि
"जत्थेव सूरिए अत्थमेज्जा तत्थेव उवायणावित्तए"
अर्थ - जहाँ सूर्यास्त हो जाय वहीं पर पडिमाधारी मुनि को ठहर जाना चाहिये। एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना चाहिये।
इसका यह अर्थ हुआ कि - सूर्यास्त तक पडिमाधारी मुनि विहार कर सकते हैं। जब सूर्यास्त तक विहार कर सकते हैं तो सूर्यास्त तक प्रतिक्रमण पूरा कर लेना कैसे संभव है?
इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध होता है कि- 'दैवसिक' प्रतिक्रमण सूर्यास्त के बाद प्रारम्भ करना चाहिये।
प्रश्न - रात्रि का प्रतिक्रमण कब करना चाहिए? - उत्तर - ४६वीं गाथा और उसकी आगे की गाथाओं में बतलाया गया है कि - रात्रि का प्रतिक्रमण सूर्योदय से पहले पूरा हो जाना चाहिये। सूर्योदय के पहले ५-४ मिनिट पहले प्रतिक्रमण (रात्रिक) पूरा हो जाना चाहिए किन्तु सूर्योदय के आधा घण्टे या इससे भी पहले तो पूरा नहीं करना चाहिये।
रात्रि चर्या देवसियं च अइयारं, चिंतिज अणुपुव्वसो। णाणम्मि दंसणे चेव, चरित्तम्मि तहेव य॥४०॥
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