Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मोक्षमार्ग गति - षट् द्रव्य 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___ भावार्थ - धर्मास्तिकाय गति-लक्षण वाला है अर्थात् धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल को गति करने में सहायता देता है और अधर्मास्तिकाय स्थिति लक्षण वाला है (अधर्मास्तिकाय जीव
और पुद्गलों को ठहरने में सहायता देता है) और सभी द्रव्यों का भाजन (पात्र) आधारभूत नभ-आकाश अवगाहन-लक्षण वाला है। (समस्त पदार्थों का आधारभूत आकाश द्रव्य है और सब को अवकाश-स्थान देना उसका लक्षण है)।
वत्तणा लक्खणो कालो, जीवो उवओग-लक्खणो। णाणेणं दंसणेणं च,सुहेण य दुहेण य॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - वत्तणा लक्खणो - वर्तना लक्षण वाला, उपओगलक्खणो - उपयोग लक्षण वाला, णाणेणं - ज्ञान से, दंसणेणं - दर्शन से, सुहेण - सुख से, दुहेण - दुःख से।
भावार्थ - काल द्रव्य, वर्तना लक्षण वाला है (जो जीव और पुद्गलों में नवीन-नवीन पर्याय की प्राप्ति रूप परिणमन करता रहता है एवं सभी द्रव्यों की अवस्थाओं को बदलता रहता है, वह ‘काल द्रव्य' कहलाता है) जीव, उपयोग (चेतना) लक्षण वाला है, (जिसमें ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग हो उसे 'जीव' कहते हैं) वह ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख द्वारा पहचाना जाता है।
णाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं॥११॥ कठिन शब्दार्थ - वीरियं - वीर्य, उवओगो - उपयोग, जीवस्स लक्खणं - जीव का लक्षण।
भावार्थ - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग, ये जीव के विशिष्ट लक्षण हैं, अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव-तत्त्व को छोड़ कर अन्य किसी में नहीं रहते, इसलिए ये जीव के विशिष्ट (असाधारण) लक्षण हैं।
विवेचन - उपर्युक्त दसवीं और ग्यारहवीं गाथाओं में दो बार जीव द्रव्य के लक्षण बताये हैं। दसवीं गाथा के उत्तरार्द्ध में जीव के स्वाभाविक लक्षणों को बताया गया है अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख, ये चारों लक्षण सभी संसारी जीवों में होते हैं। मिथ्यात्व के होने पर मिथ्याज्ञान एवं मिथ्यादर्शन होता है तथा सम्यक्त्व के होने पर सम्यग् ज्ञान और सम्यग्दर्शन होता है। सिद्ध अवस्था में भी इन चारों में से ज्ञान, दर्शन एवं सुख, ये तीन गुण तो होते ही हैं एवं दुःख के पूर्ण अभाव रूप में चौथा भेद भी माना जा सकता है। ग्यारहवीं गाथा में जो जीवों के छह गुणों का वर्णन किया है वे जीवों के संयोगी अवस्था (कर्मों से संयुक्त) के गुण समझने चाहिए। संयोगी अवस्था से रहित होने पर उपर्युक्त (दसवीं गाथा में कहे हुए) गुण ही होते हैं।
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