Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मोक्षमार्ग गति - सम्यक्त्व की रुचियाँ - निसर्ग रुचि
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५. बीजरुचि - बीज की तरह एक पद का ज्ञान होते ही अनेक अर्थों को समझ लेने या हृदयंगम करने की तत्त्वरुचि।
६. अभिगमरुचि - शास्त्रों को अर्थ सहित पारायण करने से हुई तत्त्वरुचि। ७. विस्ताररुचि - द्रव्यों को नय-प्रमाणों से विस्तृत रूप से जानने की हुई तत्त्वरुचि। ८. क्रियारुचि - विविध धर्म क्रियाओं में हुई रुचि।
६. संक्षेप रुचि - विवादास्पद विषयों से अनभिज्ञ तथा दूर रह कर संक्षेप में श्रद्धा रखने की रुचि। १०. धर्मरुचि - जिनोक्त धर्म के प्रति रुचि रखना।
१. निसर्गरुचि भूयत्थेणाहिगया, जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुइयासवसंवरो य, रोएइ उ णिसग्गो॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - भूयत्थेण - सद्भूत अर्थ-यथार्थ रूप से, अहिगया - जान लिया, सहसम्मुइया - अपनी ही मति से, आसवसंवरो - आस्रव और संवर, रोएइ - रुचि रखता है।
भावार्थ - गुरु आदि के उपदेश के बिना स्वयमेव जातिस्मरण या प्रतिभा आदि ज्ञान द्वारा जीव और अजीव, पुण्य और पाप, आस्रव और संवर तथा बन्ध, निर्जरा और मोक्ष, ये पदार्थ सत्य हैं इस प्रकार जिसने जान लिया है, उसके जो रुचि होती है, उसे 'निसर्ग रुचि' कहते हैं।
जो जिणदिढे भावे, चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव। एमेव णण्णहत्ति य, णिसग्गरुइत्ति णायव्वो॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - जिणदिटे - जिनोपदिष्ट या जिनदृष्ट, भावे - भावों को, चउव्विहेचार प्रकार से, सद्दहाइ - श्रद्धा करता है, सयमेव - स्वयमेव, एमेव णण्णहत्ति - यह इसी प्रकार है, अन्यथा नहीं ऐसी, णायव्वो - जानना चाहिये। ... - भावार्थ - जो प्राणी गुरु आदि के उपदेश के बिना स्वयमेव जातिस्मरण एवं प्रतिभा आदि ज्ञान द्वारा जिनदृष्ट-रागद्वेष के विजेता तीर्थंकर देव के बताये हुए जीवादि पदार्थों को चार प्रकार से अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव से 'ये इस प्रकार ही हैं न अन्यथा-अन्य प्रकार से नहीं हैं। इस प्रकार श्रद्धा करता है वह 'निसर्ग रुचि' वाला है ऐसा जानना चाहिए।
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