Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - छब्बीसवाँ अध्ययन
भावार्थ - यति-साधु प्रस्रवण (लघुनीत) और उच्चार (बड़ीनीत) के स्थान को यतनापूर्वक देखे। इसके बाद सभी दुःखों से छुड़ाने वाला कायोत्सर्ग करे अर्थात् आवश्यक सूत्र के अनुसार प्रथम आवश्यक की आज्ञा लेकर उसमें कायोत्सर्ग करे।
विवेचन - स्थण्डिल भूमि के २७ मंडल टीकाकार ने दिये हैं वे इस प्रकार हैं -
गांव के अन्दर, समीप, मध्य और दूर यह तीन अध्यासनीय (सामान्य रूप से उपयोग में आने योग्य) और अनध्यासनीय (विशिष्ट प्रयोजन वश उपयोग में आने योग्य) इस प्रकार समीप, मध्य और दूर इस प्रकार प्रत्येक के दो-दो भेद होने से गांव के अन्दर के छह मंडल हुए। इसी प्रकार गांव के बाहर भी समीप, मध्य और दूर के दो-दो भेद होने से गांव के बाहर के भी छह मंडल हुए। इस तरह अन्दर और बाहर के मिलाने से बारह मंडल उच्चार (बड़ी नीत) के होते हैं। इसी प्रकार प्रस्रवण (लघुनीत) के भी बारह भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार दोनों को मिलाने से क्षेत्र के २४ मंडल होते हैं फिर रात्रि के प्रथम, मध्यम और अंतिम भाग ऐसे काल के तीन भेद मिलाने से सब २७ मंडल होते हैं। साधु, साध्वी इन २७ मंडलों की प्रतिलेखना करें।
प्रश्न - दैवसिक (दिन सम्बन्धी) प्रतिक्रमण किस समय करने का विधान है? प्रतिक्रमण किस समय प्रारम्भ करना चाहिये? क्या सूर्यास्त होने के पहले प्रतिक्रमण के छहों आवश्यक पूरे हो जाने चाहिये?
उत्तर - इसका समाधान यह है कि - यहाँ पर अर्थात् उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन की बीसवीं गाथा तक सामान्य रूप से साधु साध्वियों का दिन और रात्रि संबंधी कार्य बतलाया गया है। इसके आगे १८॥ गाथा तक अर्थात् ३८॥ गाथा तक विशेष प्रकार से दिन के कार्य बतलाये गये हैं। बाद में (प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग आदि) रात्रि के कार्य बताये गये हैं। इस (३९वीं) गाथा की टीका में इस प्रकार कहा है - "एवं च सप्तविंशति स्थंडिलानां प्रत्युप्रेक्षणानन्तरमादित्योऽस्तमेति इत्थं विशेषतो दिनकृत्यमभिधाय संप्रति तथैव रात्रिकर्तव्यमाह"- अर्थ - दिन के चौथे प्रहर के चौथे भाग में उच्चार प्रस्रवण भूमि - स्थण्डिल भूमि की २७ प्रकार से प्रतिलेखना करे। इसके बाद सूर्य अस्त हो जाता है तब मुनि के दिन में करने योग्य कार्य बतला कर अब रात्रि में करने योग्य कार्य बतलाये जा रहे हैं। इस टीका से यह स्पष्ट होता है कि दैवसिक प्रतिक्रमण सूर्यास्त के बाद प्रारम्भ करना चाहिये।
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