Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
केशि-गौतमीय - धर्मचर्चा की फलश्रुति 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उस सुखकारी मार्ग में विचरण करने लगे जो प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर देवों के साधुओं के लिए प्ररूपित किया गया है। - विवेचन - प्रस्तुत दो गाथाओं में केशीकुमार श्रमण के विनय धर्म का आदर्श चित्र प्रस्तुत किया गया है जिसमें कृतज्ञता प्रकाशन, ज्ञानी महापुरुष के गुणगान, वंदन, नमन आदि गुण गर्भित हैं। साथ ही उनमें सरलता, सत्यप्रियता, निष्पक्षता आदि मुनिजनोचित गुणों का परिचय भी विशेष रूप से मिल रहा है जो प्रत्येक मुमुक्षु एवं स्व-पर कल्याणकारी साधु साध्वियों के लिये मननीय एवं अनुकरणीय है।
प्रथम तीर्थंकर जब मोक्ष चले जाते हैं तब लम्बे समय तक उनकी पाट परम्परा चलती है। जब उनमें केवलज्ञानी नहीं रहते किन्तु छद्मस्थ शिष्यानुशिष्य रहते हैं, उन्हीं दिनों दूसरे तीर्थंकर को केवलज्ञान हो जाता है तब उनका - दूसरे तीर्थंकर का शासन चलता है। उस समय प्रथम तीर्थंकर के साधुओं का दूसरे तीर्थंकर अथवा उनके शिष्यों के साथ मिलन होता है तब चर्चा वार्ता होने के बाद वे दूसरे तीर्थंकर के शासन में चले जाते हैं। इसी प्रकार तेवीसवें तीर्थंकर के साधु साध्वी भी चौबीसवें तीर्थंकर के साधुओं के साथ मिलन होने पर चर्चा वार्ता के बाद उनकी शंका का समाधान हो जाने पर वे चौबीसवें तीर्थंकर का शासन स्वीकार कर लेते हैं। जैसा कि यहाँ कुमार श्रमण केशी स्वामी ने किया है। यदि पूर्व साधु-साध्वी से मिलान न हो तो भी वे आराधक ही होते हैं और यावत् केवलज्ञानी होकर मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं। मिलान होने पर भी मान कषाय आदि के कारण दूसरे तीर्थंकर का शासन स्वीकार न करें तो विराधक भी बन जाते हैं। - इस प्रकार केशीकुमार श्रमण के मन, वाणी द्वारा किये गये विनय का वर्णन करके अब उनके कायिक विनय का दिग्दर्शन कराते हुए साथ में उक्त शास्त्रार्थ के परिणाम का भी वर्णन करते हैं। यथा -
धर्मचर्चा की फलश्रुति केसीगोयमओ णिच्चं, तम्मि आसी समागमे। सुय-सील-समुक्कसो, महत्थत्थ-विणिच्छओ॥८॥ .
कठिन शब्दार्थ - सुयसीलसमुक्कसो - श्रुत और शील का समुत्कर्ष, महत्थत्थविणिच्छओ - महार्थ (मुक्ति रूप महान् अर्थ पुरुषार्थ) के अर्थों का विनिश्चय। .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org