Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जण्णइज्जं णामं पंचवीसइमं अज्झयणं यज्ञीय नामक पच्चीसवां अध्ययन
वाणारसी (बनारस) नगरी में जयघोष और विजयघोष नामक दो सगे भाई रहते थे। जो काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। वे दोनों संस्कृत के महान् पंडित थे। अपने सिद्धांत वेद और वेदांगों के ज्ञाता थे। एक दिन जयघोष स्नान करने के लिए गंगा नदी पर गया वहाँ उसने एक दृश्य देखा। जिसको उसने श्लोक में निबद्ध किया, वह इस प्रकार हैं
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भेको धावति तञ्च धावति फणी सर्प शिखी धावति । व्याधो धावति के किनं विधिवशाद् व्याघ्रोऽपि तं धावति । स्वस्वाहार विहार साधनविधौ सर्वे जना व्याकुलाः । कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते ॥
अर्थ - एक मेंढक ने अपने मुख में मक्खी को पकड़ रखी है। वह चीं-चीं करती है फिर भी वह उसे खा रहा है। उसी प्रकार एक सांप ने उस मेंढक को पकड़ रखा है। वह उसे खा रहा है। सांप को एक मयूर (मोर) ने पकड़ रखा है और वह उसे खा रहा है और आधा निगल गया है । ऐसी स्थिति में भी सांप मेंढक को और मेंढक मक्खी को नहीं छोड़ रहा है। इधर एक शिकारी आया वह मोर को मारने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा रहा है। उधर जंगल से एक शेर पानी पीने के लिए आ रहा था ज्यों ही उसने मनुष्य को देखा वह उसे मारने के लिए झपटा। इस दृश्य को देख कर जयघोष बड़ा विचार में पड़ गया कि इस संसार में तो 'मच्छ गलागल न्याय' चल रहा है। सबल व्यक्ति निर्बल को मारना चाहता है । परन्तु यह नहीं देखता कि मृत्यु तो हमारे पीछे लगी हुई है। केशों को पकड़ रखा है। न मालूम किस समय झटका देकर वह प्राणी को अपना ग्रास बना लेगी। यह दृश्य देखकर जयघोष को संसार की असारता और भयानकता दिखने लगी - हृदय कांप गया। इतने में ही विहार कर आते हुए जैन मुनि दिखाई दिये वह उनके पास पहुँचा। विनयपूर्वक प्रणाम किया और अपना देखा हुआ दृश्य उनकी सेवा में निवेदन किया। मुनि महात्मा अच्छे ज्ञानी थे । इसलिए अवसर के उचित उसको उपदेश दिया कि
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्म माचरेत् ।
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