Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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समुट्ठियं तहिं संतं, जायगो पडिसेहए।
हु दाहामि ते भिक्खं, भिक्खू! जायाहि अण्णओ ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - समुट्ठियं उपस्थित, संतं
उत्तराध्ययन सूत्र - पच्चीसवाँ अध्ययन
भिक्षा देने का निषेध
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ने, पडिसेहए- निषेध कर दिया, ण दाहामि याचना करो, अण्णओ - दूसरे स्थान से ।
भावार्थ - वहाँ आये हुए भिक्षु को निषेध करता हुआ वह विजयघोष कहने लगा कि हे भिक्षो! तुझे मैं भिक्षा नहीं दूँगा अतः अन्यत्र जा कर याचना करो - भिक्षा माँगो ।
विवेचन - विजयघोष के शब्दों को देखते हुए उस समय याजकं लोगों का मुनियों के ऊपर कितना असद्भाव था, यह स्पष्ट रूप से झलक रहा है, जो कि उस समय बढ़ी हुई साम्प्रदायिकता का द्योतक है।
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जे य वेयविऊ विप्पा, जण्णट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य, जे य धम्माण- पारगा ॥७॥ जे समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य
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संत को, जायगो - याजक विजयघोष नहीं दूंगा, भिक्खं भिक्षा, जायाहि
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तेसिं अण्णमिणं देयं, भो भिक्खू ! सव्वकामियं ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - वेयविऊ विप्पा - वेद के ज्ञाता विप्र-ब्राह्मण, जण्णट्ठा - यज्ञार्थी, दिया - द्विज- ब्राह्मण, जोइसंगविऊ - ज्योतिषांग के ज्ञाता, धम्माणपारगा धर्मशास्त्रों में पारंगत, समत्था - समर्थ, समुद्धतुं - उद्धार करने में, परमप्पाणमेव अपनी और पर की आत्मा का, अण्णं अन्न, इणं - यह, सव्वकामियं भावार्थ जो विप्र-ब्राह्मण वेदों को जानने वाले
सर्वकामित - सर्व रस युक्त ।
हैं और जो द्विज-ब्राह्मण यज्ञार्थी (यज्ञ को जानने वाले) हैं तथा जो ज्योतिष के ज्ञाता हैं अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष इन छह अंगों के जानने वाले हैं और जो धर्म के पारगामी हैं। जो अपनी तथा दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं। हे भिक्षो! सर्वकामित छह रस वाला यह अन्नउत्तम भोजन ऐसे ब्राह्मणों को देने के लिए है।
विवेचन
जैन सिद्धान्त में तीखा, कड़वा, कषैला, खट्टा और मीठा ये पांच रस माने
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