Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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- यज्ञीय - ब्राह्मण का लक्षण
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कठिन शब्दार्थ - कोहा - क्रोध से, वा - अथवा, हासा - हास्य से, लोहा - लोभ से, भया - भय से, मुसं - मृषा, ण वयइ - नहीं बोलता है।
भावार्थ - क्रोध से अथवा हास्य से, लोभ से अथवा भय से जो तीन करण तीन योग से मृषा-झूठ नहीं बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
विवेचन - वैदिक शास्त्रों में भी - जो असत्य का त्यागी है, वही सच्चा ब्राह्मण है। इसी बात का समर्थन मिलता है। यथा -
'यदा सर्वानृतं त्यक्तं मिथ्याभाषा विवर्जिता। अनवधं च भाषेत, ब्रह्म सम्पद्यते तदा।' अश्वमेधसहस्त्रं च सत्यं च तुलया घृतम्। अश्वमेधसहस्त्रादि, सत्यमेव विशिष्यते॥ तात्पर्य यह है कि सत्य की सहस्रों अश्वमेधों से भी अधिक महिमा है। चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहु।
ण गिण्हइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं॥२५॥ . कठिन शब्दार्थ - चित्तमंतं अचित्तं - सचित्त अथवा अचित्त, अप्पं - अल्प, बहुं - बहुत, अदत्तं - अदत्त-बिना दिया हुआ, ण गिण्हइ - ग्रहण नहीं करता है।
भावार्थ - सचित्त अथवा अचित्त तथा अल्पमूल्य वाली एवं अल्प परिमाण वाली अथवा बहु मूल्य वाली एवं बहु परिमाण वाली बिना दी हुई वस्तु को जो तीन करण तीन योग से ग्रहण नहीं करता है उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
विवेचन - सचित्त - सजीव - चेतना वाले पदार्थ द्विपदादि और अचित्त - निर्जीव - चेतना रहित पदार्थ तृण भस्मादिक हैं। यहाँ पर सचेतनादि के कहने का अभिप्राय यह है कि जो तृतीय महाव्रत को धारण करने वाले हैं वे शिष्यादि को उनके सम्बन्धिजनों की आज्ञा के बिना ग्रहण नहीं कर सकते अर्थात् दीक्षा नहीं दे सकते। निर्जीव तृण भस्मादि तुच्छ पदार्थों को भी स्वामी के आदेश बिना ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है। अन्यत्र भी कहा है -
"परद्रव्यं यदा दृष्टम, आकुले ह्यथवा रहे।
धर्मकामो न गृह्णाति, ब्रह्म सम्पद्यते तदा।' दिव्व-माणुस्स-तेरिच्छं, जो ण सेवेइ मेहुणं। मणसा काय-वक्केणं, तं वयं बूम माहणं॥२६॥
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