Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
.
६०
उत्तराध्ययन सूत्र - पच्चीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000
णण्णटुं पाणहे वा, ण वि णिव्वाहणाय वा। तेसिं विमोक्खणट्ठाए, इमं वयणमब्बवी॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - ण अण्णटुं - न अन्न के लिए, ण पाणहेर्ड - न पानी के लिए, णिव्वाहणाय - जीवन निर्वाह के लिये, विमोक्खणट्ठाए - विमोक्षण (मुक्ति) के लिए, इमं वयणं - यह वचन, अब्बवी - कहा।
भावार्थ - वे न तो अन्न के लिए और न पानी के लिए और न निर्वाह के लिए किन्तु . उनका अज्ञान दूर करके उनकी मुक्ति के लिए इस प्रकार वचन कहने लगे। .
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में स्पष्ट किया गया है कि जयघोष मुनि के उद्गार न तो आहार पानी प्राप्त करने की दृष्टि से थे और न ही वस्त्र पात्रादि जीवन निर्वाह की आवश्यक वस्तुएं या यशकीर्ति पाने के हेतु से अपितु याजकों को कर्मबंधन से मुक्त कराने के लिए थे अर्थात् कर्मों
की निर्जरा एवं संसार चक्र से मुक्त कराने के लिए थे। ___आचारांग सूत्र में बताया गया है कि साधु को इस दृष्टि से धर्मोपदेश नहीं देना चाहिए कि मेरे उपदेश से प्रसन्न होकर ये मुझे अन्न-पानी देंगे। न वस्त्र-पात्रादि के लिए वह धर्म-कथन करता है किन्तु संसार से निस्तार के लिए अथवा कर्म निर्जरा के लिए धर्मोपदेश देना चाहिये।
ण वि जाणासि वेयमुहं, ण वि जण्णाण जं मुहं। णवखत्ताण मुहं जं च, जं च धम्माण वा मुहं॥११॥ जे समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव या ण ते तुम वियाणासि, अह जाणासि तो भण॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - जाणासि - जानते हो, वेयमुहं - वेद के मुख को, जण्णाण - यज्ञों का, मुहं - मुख, णक्खत्ताण - नक्षत्रों का, धम्माण - धर्मों का, ण वियाणासि - नहीं जानते हो, भण - बताओ। ___ भावार्थ - तुम न तो वेदों का मुख जानते हो और न तुम यज्ञों का जो मुख है उसे जानते हो। नक्षत्रों के मुख तथा धर्मों के मुख को तुम नहीं जानते अर्थात् वेद, यज्ञ, नक्षत्र और धर्मों में किसे प्रधानता दी गई है तथा इनका क्या रहस्य है, इस बात को भी तुम नहीं जानते हो और जो अपनी तथा दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं उनको भी तुम नहीं जानते हो। यदि तुम इन सभी बातों को जानते हो तो बताओ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org