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उपासकाध्ययन
वररुचिने ऐसा क्यों कहा है, .
"प्राणाघातानिवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं. काले शक्त्या प्रदेयं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् । तपणास्रोतोविबन्धो गुरुषु च विनतिः सर्वभूतानकम्पा
सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष मार्गः ॥" "प्राणोंका घात करनेका त्याग, पर-धनके हरणका त्याग, सत्य वचन बोलना, समयपर शक्तिके अनुसार दान देना, परायी युवतियोंकी चर्चा-वार्तामें चुप रहना, तृष्णाके स्रोतको रोकना अर्थात् परिग्रहका परिमाण करना, गुरुओंको नमस्कार करना, सब प्राणियोंपर दया करना, सब शास्त्रोंमें यह कल्याणका सामान्य मार्ग है, किसीने भी इसका निषेध नहीं किया है।" तथा व्यासने कहा है,
"होम-स्नान-तपो-जाप्य-ब्रह्मचर्यादयो गुणाः ।
पुंसि हिंसारते पार्थ चाण्डाल-सरसीसमाः ॥" "हे अर्जुन, हिंसक पुरुषके हवन, स्नान, तप, जप, ब्रह्मचर्य आदि गुण चाण्डालके तोलाबके पानोको तरह अग्राह्य हैं।"
इस तरह यशोधरने अनेक प्रमाणभूत जैनेतर शास्त्रोंके उद्धरण-द्वारा पशुवध और मांस-भक्षणका विरोध किया।
अपने पुत्रके मुखसे इस प्रकारका तर्क सुनकर चन्द्रमतीको लगा कि मेरे पुत्रपर किसी दिगम्बर साधुकी छाया पड़ गयी है । अतः वह उनकी निन्दा करती हुई कहती है, "हे पुत्र, इन दिगम्बरोंके धर्ममें देव, पितर और द्विजोंका तर्पण नहीं होता, स्नान और होमकी बात ही नहीं है। न ये वेदको मानते हैं और न स्मतिको । ऐसे दिगम्बरोंके धर्म में तेरी रुचि कैसे हुई ? ये दिगम्बर खड़े होकर पशकी तरह भोजन करते हैं। निर्लज्ज हैं, शौच नहीं करते हैं, देव और ब्राह्मणोंके इन निन्दकोंसे तो कोई बात भी नहीं करता। कृतयुग, त्रेता और द्वापर में तो इनका नाम भी नहीं है। ये तो कलियुगमें ही उत्पन्न हुए हैं। इनके मतमें मनुष्य ही देवता है और उनको संख्या अनन्त है। हे पुत्र, धर्ममें केवल श्रुति ही प्रमाण है, वेदके सिवाय अन्य कोई देवता नहीं है । यदि तेरा अनुराग देवताओंमें है तो हर, हरि अथवा सूर्यकी भक्ति कर।
माताके वचनोंको सुनकर यशोधर उसका प्रतिवाद करते हुए कहता है, "माता, ये जैन लोग जिस प्रकारसे देवका अभिषेक, पूजन, स्तवन करते हैं तथा मन्त्र, जप और श्रुतपूजन करते हैं, उसे आप ही जरा उनसे पछकर देखें । जो हमारे पितर पुण्य-कर्म करके स्वर्गादिकमें चले गये उनके उद्देश्यसे प्रतिवर्ष ब्राह्मणों और कौओंको भोजन करानेसे क्या प्रयोजन है ?
इन दिगम्बर साधुओंका एक जन्म तो माताके उदरसे होता ही है, दूसरा जन्म व्रत धारणसे होता है अतः ये भी द्विज है । और इन द्विजोंका सन्तर्पण चतुर्विध दानके द्वारा जैन लोग करते ही हैं । इनमें जो गृहस्थ होते हैं, वे स्नान करके देव और शास्त्रका पूजन करते हैं, स्वाध्याय और ध्यान करते हैं । यदि नदी या समद्र वगैरहमें स्नानसे ही पुण्य होता है तो सबसे प्रथम तो जलचर जीव उस पुण्यके भागी होने चाहिए। कहा भी है,
"रागद्वेषमदोन्मत्ताः मीणां ये वशवर्तिनः ।
न ते कालेन शुद्धयन्ति स्नानात्तीर्थशतैरपि ॥"-आ० ४, पृ० १०९ । "जो पुरुष राग, द्वेष और मदसे उन्मत्त हैं और स्त्रियोंमें आसक्त हैं, वे सैकड़ों तीर्थोंमें स्नान करनेपर भी कभी शुद्ध नहीं हो सकते । स्तम्भन, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण और मारणके लिए व्यन्तरोंको प्रसन्न करने के लिए तथा अन्न शुद्धिके लिए हवन और भूतबलि की जाती है। देवगण तो अमृतपान करते है. उन्हें अग्निमें अर्पित अन्नसे क्या प्रयोजन ? मोक्षके लिए उद्यत साधुओंको स्नान और होमसे क्या प्रयोजन ?