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प्रस्तावना
"स्वयं ब्रह्माने यज्ञके लिए पशुओंको सृष्टि की है। और यज्ञ सबको समृद्धिके लिए हैं। अतः यज्ञमें पशुका वध अवध है। मधुपर्क, यज्ञ, पितृकर्म और देवकर्म में ही पशु-हिंसा करनी चाहिए, अन्यत्र नहीं, यह मनुने कहा है। वेद और वेदार्थको जाननेवाला द्विज इन पूर्वोक्त कर्मोमें पशुको हिंसा करता हुआ अपनेको और उस पशुको उत्तम गति प्राप्त कराता है।"
__यह सुनकर यशोधर अपने कान बन्द करके दीर्घ निःश्वास लेता है और अपनी मातासे कुछ कहनेकी बाज्ञा मांगता है। मातासे स्वीकृति पाकर यशोधर पशुबलिका सख्त विरोध करता है । वह कहता है कि प्राणियोंकी रक्षा करना क्षत्रियोंका महान धर्म है। निरपराध प्राणियोंका वध करनेपर वह महान धर्म नष्ट हो जायेगा।
"यः शमवृत्तिः समरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य ।
अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ॥" राजागण उसीपर अस्त्र-प्रहार करते हैं जो शत्रु-संग्राममें सशस्त्र उपस्थित होता है, अथवा जो निज देशका कण्टक होता है। दुर्बलोंपर, नीचोंपर और सज्जनोंपर नहीं। तो माता ! इस लोक और परलोकसम्बन्धी आचारमें तत्पर रहते हुए मैं उन पशुओंपर कैसे अस्त्र चलाऊँ! क्या आप भूल गयीं कि कल ही हिरण्यगर्भ मन्त्रोके पुत्र नीति बृहस्पतिने आपकी प्रेरणापर मुझे ये तीन श्लोक पढ़ाये थे,
"न कुर्वीत स्वयं हिंसां प्रवृत्तां च निवारयेत् । जीवितं बलमारोग्यं शश्वद वान्छन्महीपतिः ॥ यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं कृत्स्नां चापि वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् फलेन च न समं भवेत् ॥ यथात्मनि शरीरस्य दुःखं नेच्छन्ति जन्तवः ।
तथा यदि परस्यापि न दुःखं तेषु जायते ॥" "दीर्घ आयु, शारीरिक सामर्थ्य और आरोग्यको चाहनेवाले राजाको स्वयं हिंसा नहीं करनी चाहिए, और यदि कोई अन्य करता हो तो उसको रोकना चाहिए । जो पुरुष मेरुके बराबर स्वर्ण तथा समस्त पृथ्वीका दान करता है और एक जोवको जीवन दान करता है इन दोनोंके फल समान नहीं है। जैसे जीव अपने शरीरमें दुःख नहीं चाहते वैसे ही यदि दूसरे जीवके दुःखकी भी कामना न करें तो उन्हें कभी दुःख उठाना न पड़े।"
"ब्राह्मण और देवताओंके सन्तर्पण और शरीरकी पुष्टि के लिए लोकमें अन्य भी बहुत-से उत्तम उपाय हैं। तब सत्पुरुष पाप क्यों करेगा? फिर मांस तो रज और वीर्यके संयोगसे उत्पन्न होता है, अतः वह अपवित्रताका घर है। ऐसा मांस भो यदि देवताओंको पसन्द है तो हमें मांसभक्षो व्याघ्रोंको उपासना करनी चाहिए । अतः देवता पशओंके उपहारसे प्रसन्न होते हैं, यह प्रवाद मिथ्या है। वनमें भी तलवारके द्वारा और गला दबानेसे पशु मारे जाते हैं। और इनको देवियां यदि स्वयं खा जाती है, तब तो उनसे व्याघ्र ही विशेष स्तुतिके योग्य है क्योंकि वे स्वयं मारकर खा जाते हैं, देवताओंको तरह दूसरोंसे मरवाकर नहीं खाते। यथार्थमें लोग देवताओंके बहानेसे स्वयं मद्य और मांसका सेवन करते हैं। ऐसा करनेसे यदि दुर्गति न हो तो फिर दुर्गतिका दूसरा मार्ग कौन-सा है ? __"यदि परमार्थसे हिंसा ही धर्म है तो शिकारको 'पापद्धि' क्यों कहते हैं, मांसको ढोककर क्यों लाते है? मांस बनानेवाला घरसे बाहर क्यों रहता है, मांसका दूसरा नाम रावणशाक क्यों है? तथा पर्वके दिनोंमें मांसका त्याग क्यों बतलाया है ? तथा पुराणोंमें ( महाभारतमें) ऐसा क्यों कहा है,
"यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु मारत ।
__तावद् वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुधातकाः ॥" "हे युधिष्ठिर, पशुके शरीरमें जितने रोम होते हैं, पशुके घातक उतने हजार वर्ष तक नरकमें दुःख भोगते है।"