Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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WALACE
त०रा०
जिसप्रकार रूपवान कहनेसे जो सुन्दर है उसीका ग्रहण किया जाता है किंतु वहांपर यह अर्थ नहीं है। || लिया जाता किजिसमें रूप है वही रूपवान है अन्य सव रूपरहित है क्योंकि रूपमात्रकी नास्ति
नहीं कही जा सकती । मनोहर रूप सवका नही होता इसलिये उप्तकी नास्ति हो सकती है उसी प्रकार 'ज्ञानवान्' कहनेसे जिसका ज्ञान विशुद्ध है उसीका ग्रहण है किंतु यह बात नहीं जिसमें ज्ञान है | वही ज्ञानवान है अन्य सव ज्ञानरहित हैं क्योंके ज्ञान मात्रकी कभी नास्ति नहीं कही जा सक्ती ।।
नहीं तो आत्मा पदार्थ ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। हां ! यह वात अवश्य है कि विशुद्ध ज्ञान सभीका नहीं। | होता अतः उसका अभाव कहा जा सकता है इस लिये यहाँपर यह समझना चाहिये कि सभी आत्मा चैतन्यस्वरूप हैं इसलिये वे ज्ञानवान हैं। जिस समय आत्मामें मिथ्यादर्शनका उदय हो जाता है | उस समय पदार्थों का विपरीत श्रद्धान हो जानेके कारण आत्मा मिथ्यादृष्टि और मिथ्याज्ञानी कहा है। जाता है किंतु जिस समय मिथ्याज्ञानके उदयका अभाव हो जाता है और जो पदार्थ जिसस्वरूपसेर स्थित है उसका उसी रूपसे श्रद्धान और ज्ञान होने लगता है तब वह आत्मा सम्यग्दृष्टि और प्रशस्त || ज्ञानी कहा जाता है इसलिये ज्ञानवान, शब्दका अर्थ यहां प्रशस्त ज्ञानवान है। विशेषका अर्थ जुदा ॥६|| करनेवाला है यहां पर एक क्रियाको दूसरी क्रियाओंसे जुदा करे उसका नाम विशेष है अथवा जोड
अपने हीको दूसरे विशेषोंसे जुदा करनेवाला हो वह विशेष है। वह विशेष दो प्रकारका है एक वाह्य विशेष दूसरा अभ्यंतर विशेष । वाह्य विशेषके भी दो भेद हैं वाचिक और कायिक । वचन का || विशेष वाचिक विशेष कहा जाता है और शरीरका विशेष कायिक विशेष कहा जाता है। ये दोनों ही | विशेष चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियोंके गोचर हैं इस लिये वाह्य है तथा अभ्यंतर विशेषका भेद मानसिक
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