Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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-त०रा०
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नाम द्विविध और द्विविधपनाका नाम द्वैविष्य है । वे दो प्रकार निर्सर्ग और आधगम हैं । 'उत्पन्न हुआ' यह अर्थ जनितका है । तथा जिसके द्वारा कार्य किया जाय उसका नाम व्यापार है । अर्थात् जो उद्दिष्ट वस्तुके प्राप्त कराने में समर्थ हो ऐसा जो क्रियाप्रयोग है उसे ही व्यापार कहते हैं । यहाँपर आत्माके वाह्य परिणामरूप कारणोंसे होनेवाले जो दर्शन मोहनीयके उपशम क्षय और क्षयोपशम में अंतरंग परिणाम रूप कारण उनके द्वारा जीव आदि पदार्थों के विचारको विषय करनेवाला अधिगम और निसर्ग व्यापार माना है । इस प्रकार परिणाम ही विशेष वा परिणामका विशेष उससे उत्पन्न हुआ जो अघिगम और निसर्गरूपी द्विविधपना वही उत्पन्न हुआ है व्यापार जिसमें ऐसा यथावस्थित पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । "यह समस्त वाक्य के आधार पर पद पदका अर्थ है" । विस्तार के साथ सम्यग्दर्शन का अर्थ आगे किया जायगा ।
नयमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानं ॥ २ ॥
नय प्रमाण और उत्तरोत्तर भेदरूप कारणोंके द्वारा जीव आदि पदार्थ जिस रूपसे स्थित हैं उनको उसी रूपसे जानना सम्यग्ज्ञान है । जो पदार्थ के एकदेश वा खास धर्मका बोधक हो वह नय है और जो वस्तु के एक धर्म के ज्ञान से उस वस्तुमें रहनेवाले समस्त धर्मोका वा उन समस्त धर्म स्वरूप वस्तुका जाननेवाला हो वह प्रमाण है। नयके मूल भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक हैं और प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिककं नैगम संग्रह आदि भेद हैं तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणके भेद मतिज्ञान
१ निसर्गका अर्थ स्वभाव और अधिगमका अर्थ गुरुका उपदेश प्रादि है । जो सम्यग्दर्शन स्वभावसे हो हो वह निसर्गज और जो गुरुका उपदेश आदि कारणोंसे हो वह अधिगमन सम्यग्दर्शन है।
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