Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान आदि हैं। इनका आगै वर्णन किया जायगा। वार्तिकमें जो पूर्व शब्द दिया, 100 गया है उसका अर्थ कारण है । अर्थात् जीव आदि पदार्थोंके जानने नय प्रमाण और उनके भेद । प्रभेद कारण हैं। ज्ञान मात्र कहनेसे संशय ज्ञान विपर्ययज्ञान और अनध्यवसाय ज्ञानोंका भी ग्रहण
हू हो सकता है और वे भी मोक्षके कारण पड सकते हैं इसलिये उनके निराकरणके लिये ज्ञानके साथ हूँ है सम्यविशेषण दिया है। संशय विपर्यय और अनध्यवसाय मिथ्याज्ञान हैं इस लिये सम्यग्ज्ञानके कहनेसे है मोक्षके कारणों में उनका ग्रहण नहीं किया जा सकता। विशेष
जो ज्ञान विरुद्ध अनेक कोटियोंका अवलंबन करनेवाला है वह संशयज्ञान है जिस प्रकार दुरमें पडी हुई सीपमें चांदी सरीखी आभा देख यह चांदी है या सीप है ? इस प्रकार दो कोटिका अवलंबन ३ करनेवाला ज्ञान । जिस ज्ञानमें विपरीत एक कोटीका ही निश्चय है वह ज्ञान विपर्यय ज्ञान है । जिस
प्रकार सीपमें यह चांदी ही है इसप्रकारका ज्ञान । तथा-मार्गमें चलते हुये पैरमें कंकडी आदिके लग हूँ जाने पर यह क्या है ? इस प्रकार जो ज्ञान है वह अनध्यवसाय है। ये तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं सम्पहै ज्ञान नहीं, इसलिये सम्यक् पदसे इनका निराकरण हो गया ॥
संसारकारणानवृत्ति प्रत्यागृर्णस्य ज्ञानवतो वाह्याभ्यंतरक्रियाविशेषोपरमः सम्यक्चारित्रं ॥३॥
संसारके कारणोंके सर्वथा नाशकी इच्छा रखनेवाले ज्ञानवान आत्माकी शारीरिक और वाचनिक वाह्य क्रिया तथा मानसिक अंतरंग क्रियाओंका विशेष रूपसे जो रुक जाना है वही सम्पचारित्र है।
द्रव्य क्षेत्र काल भव और भावके भेदसे संप्तार पांच प्रकारका है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म उसके कारण वतलाये हैं। निवृत्तिका अर्थ सर्वथा नाश है । ज्ञानवान्, यहां पर 'मतु' प्रत्यय प्रशंसा' अर्थमें है
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