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नहीं है, न काम करने कराने में इसकी कोई आवश्यकता ही है । घी के सामने अग्नि आने से पिघलेगा ही, वर्फ के सामने गर्मी आने से पानी होगा ही । ईश्वर का इन कामों में हाथ है ऐसा कहना व्यर्थ है। ईश्वर निर्विकार, इच्छारहित, परमानन्दमई है, वह किसी वस्तु के बनाने व बिगाड़ने में दखल नहीं देता है।
तत्त्वभावना
जीव और पुद्गल चार काम अपनी ही ताकत से करते हैं; जैसे - चलना, ठहरना, जगह पाना और अवस्थाओं को बदलना । क्योंकि हरएक कामके लिए खास निर्मित कारण की जरूरत है । इसलिए इन चारों कामोंके लिए जैन सिद्धांत ने चार द्रव्य माने हैं। जो जीव मुद्दों के बल में उदासीन कारण है वह लोकव्यापी धर्मद्रव्य है । जो जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहकारी है वह लोकव्यापी अधमंद्रव्य है। जो सब द्रव्योंकी अवकास देता है वह अनंतव्यापी आकाशद्रव्य है । जो सब द्रव्योंको अवस्था बदलने में मदद देता है वह कालाणु नामका कालद्रव्य है, जो रत्नों के समान अलगर लोकके असंख्यात प्रदेशों में तिष्ठा है।
जीव और कर्म पुद्गल इन दो द्रव्योंके सम्बन्ध के कारण से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच तत्व व्यवहार किये जाते हैं।
संसारी जीवों के मन, वचन, कायके कामोंके होते हुए आत्मा के प्रदेश काँपते हैं इस कारण से चारों तरफ के कर्म पुद्गल जीव के अच्छे या बुरे भावों के अनुसार पुण्य या पापरूप में आते हैं। इसी को आस्रव तत्व कहते हैं। ये आए हुए ही कर्मपुद्गल जीव के साथ जो कार्माण शरीर है उसीमें बंध जाते हैं । यह बंधन किसी नियमित समय के लिए होता है। उस समय के