________________
r. y
MPS
तस्त्वचा
और अजीब भी हैं। संसारी जीव सब अशुद्ध हैं; क्योंकि इनमें ज्ञान की कमी है, क्रोत्रादि है, क्लेश आदि भोगते हैं । यह अशुद्धता इसीलिए है कि इनके साथ कर्मरूपी पुद्गलों का जो बहुत सूक्ष्म हैं तथा अजीव के पांच भेदों में से एक है, उनका बंध है । इसी को पाप व पुण्य कर्म का बंध कहते हैं। अजीव पांच है-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल । इनमें पुद्गल मूर्तिक है; क्योंकि इसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, गुण पाए जाते हैं, शेष चार अमृतिक हैं। सारी रचना जो हमारी पांचों इंद्रियों से मालूम करने में आती है पुद्गलसे रमी हुई है। हम शरोर से पुद्गल को छूते हैं; मुख से पुद्गल को खाते पीते ब चन्नाते हैं, नाक से पुद्गल को ही सूंघते हैं, आंख से पुद्गल को ही देखते हैं, कान से शब्दों को सुनते हैं जो पुद्गल से बने हुए हैं। सूक्ष्म पुद्गल इंद्रियों के द्वारा ग्रहण में नहीं आते हैं तथापि उनके कार्य प्रगट हैं। उन कार्यों के द्वारा उनका होना समझ लिया जाता है । जैसे कर्म पुद्गल बहुत सुक्ष्म हैं इंद्रियों से जाने नहीं जाते परंतु संसार में जांवों के भीतर अशुद्धता व दुःख सुख को भोगना देखकर अनुमान लगाते हैं कि पाप व पुण्य का अथवा कर्मों का बंध है । इस लोक में जीब और पुद्गल एक दूसरे पर असर डालते हैं, हलन चलन करते हैं, तरह-२ के कामों को करने वाले ये दो ही बड़े कार्यकर्ता हैं। बहुत से पुद्गल अपने स्वभाव से काम किया करते है, जैसे आग को गर्मीसे पानी का भाप बनना, बादलों का गिरकर पानी बरसना, धूप होना, छाया होना आदि काममुद्गलों के द्वारा उनके स्वभाव हो से हुआ करते हैं, बहुत से कामों को यह संसारी जीव करता है। जैसे खेती करना, मकान बनाना, कपड़ा बनना आदि - २
|
तीसरा कोई एक ईश्वर कराने वाला
-