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* लघुस्याहादरहस्यसंवादः यदि त्ववयवे नीलजनकसंयोगेन नीलजननोत्तरमेवाऽवयविनि नीलोत्पत्तिरित्यभ्युपगम्यते तदा नीलादी नीलामावादेपे कार्यसहभावेन प्रतिबन्धकत्वं युक्तिमत् ।
चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति च पृथिवीत्वेनैव हेतुत्वम् । न च नीलमात्रारब्धेऽपि तहापतिः, रूपनचित्रे नीलेतर-पीतेतरादेरपि हेतुत्वात् ।
-* जय *प्रकृते च लघुस्याद्रादरहस्ये 'नालायभावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन विरोधिमिति तु वायूपनीतसुरभिभागादनीरूपत्वं न शोभते' (ल.स्या.र.पू. २२) इत्येवं गाठी वनंत इनि ध्येयम् ।
ननु मयावधिनि नालादिजनकोऽग्निसंयागी नवा भ्युपगम्यत किन्त्ववयवसमवेतरूपादेवा बर्यावनि नीलादिम्पत्तादोऽभ्युपगम्यन इत्याशयं विलुपाकगदिनां दर्शयति यानि । अभ्युपगमवादसूचनायेदम् । तुर्विशेषगार्थः, नदेव दर्शयति →
अवयवे = कपालादी नीलजनकसंयोगन = नालापजनकतंजःसंयोगन, अवयं नीलजननांत्तरं = नालरूपोत्पादानन्त| रोत्तरकाल एब अवयचिनि बटादा नीलोत्पनि: भवाति अभ्युपगम्यत भवद्भिः तदा समवायन नीलादी - नालादिकं प्रति. नीलाभावादरपि, अपिना नालतररूमादिसमुच्चयः. प्रतिवन्धकत्वं युक्तिमत, व्यतिरकव्यभिचारविरहात गौरवानवकाशाच वस्तुनस्तु अनुपदानादिरा नीलाभागदः कारणाभावात्मकत्वमव, न तु प्रतिबन्धकत्वमिति ध्ययम् ।
ननु चित्रं प्रति केन रूपेण हेतुत्वं ? इत्याशङ्कायामाह -> चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति च = याचित्रम्प पृथिवीत्वेनैव | | हेतुत्वम्, स्पस्व पृथिवी-जल नजीनिये पि चित्ररूपस्य पृथिवीमात्रवृत्तित्वात् । एवकारण पाकत्वादेव्यंबन्दः कृतः । प्रकृने कार्यतावच्छेदकसम्बन्धः समवाय:, कार्यतावच्छेदकधर्मः चित्रत्वं, कारणनारदकसंसर्गः तादात्म्यं कारणतावच्छेदकधर्मश्र पृथिगत्वम । नन ममवायन चित्ररूपं प्रति तादात्म्मन प्रथिन्या: कारणले यस्मिन् कपाल कवलं नालरूप तत्स चित्रांन्यादप्रमङ्गो दुर्निवारः, घटस्य पार्थिवद्रयवादित्याशङ्कामगाकर्तुमुपक्रगत न चेति । नीलमात्रारब्ध = नीलतररूपशून्येन मालरूपचनः कपालदिना प्रार- बटादावववनि अपि तदापत्तिः = अतिरिक्तचित्ररूपान्यत्तिप्रसङ्गः 1 तन्निरासे युनिमाविष्कगति रूपनचित्रे = अअयवसम्बतरूपजन्य चित्ररूप, नालतर-पतितरादः अपि तत्वात् । अयं भाव: चाक्षुषल्यायन्छिन्त्र प्रति | प्रतिबन्धकभाव स्वीकार्य हो नहीं सकता . यह नात्पर्य है ।
= जीलामाबाद में शिवमपहेतुता मुमकि] - पियवादी यदि. इति । अगर यहाँ यह कल्पना की जाय कि --> 'अवयर में नीलरूपजनक अनिसंयोग सर्वप्रथम अवयव में ही नील रूप का उत्पत्र करेगा और बाद में अवयवगन नील रूप ही अवयवी में नील रूप को उत्पत्र करेगा । अनएच स्वाश्रयसमवेतत्व संसर्ग से प्रतियोगिब्यधिकरण नील-नीलजनकाग्निसंयोगान्यतात्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव को ममवाय | संसर्ग से नील रूप का प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकता नहीं है । इसका कारण यह है कि पाकज और अपाकज स्थल में हम अवयवसमत रूप को ही अवयवी में समवाय संबन्ध से होनेवाले रूप का असमवायिकारण मानते हैं <- तर नो अनयनी में नीलादि रूप के प्रति कार्यमहभावन नीलाभार आदि को भी प्रतिबन्धक मानना युक्तिसंगन है । अवयवरूप से अवयविगत रूप की उत्पनि मानने में नील-नीलजनकाग्रिसंयोगान्यतराभाव को प्रतिवन्धक मानने की आवश्यकता नहीं हैऐसा सूचित होता है। अनः गौग्य टोप को अवकाश नहीं है।
* पृटती ही चित्र ५५ का हेतु है ॐ चित्रत्व।, इति । अन्य विद्वानों की यह राय है कि चित्रत्वावन्छिन : यावत चित्ररूप के प्रति पृथ्वीवरूप में ही पृथ्वी में काग्णना है । मतलब कि घट, पट आदि पृथ्वी होने की वजह ही उनमें चित्र रूप उत्पन्न होता है। यहाँ यह शंका हो कि --> 'चित्र रूप के प्रति पृथ्वीन्यरूप में कारणता का स्वीकार करने पर तो केवल नीलरूपवाले कपाल से आरब्ध घट में भी चित्र रूप उत्पन्न होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि पृथ्वी द्रव्य = पार्थिव द्रव्य होने की वजह एट चित्र कंप का कारण है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि चित्रमात्र के प्रति पृथ्वी द्रव्य कारण होने पर भी रूपजन्य चित्र रूप के प्रति नीलेनर, पीततर आदि रूप भी कारण हैं । आशय यह है कि पृथ्वी द्रव्य तो चित्ररूप सामान्य का कारण है और नीलतर, पीनंतर आदि रूप चित्रविशेष का कारण हैं । केवल नीलमपचाले कपाल से आरब्य घट में रूपजन्य चित्ररूप का आपादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस घर में नीलेतर रूप आदि का अभाव है।