Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 19
________________ ५५२ मध्यमम्यादाटरहस्य खण्डः ३ - का.५ ** नीलाभावादेविप्रप्रतिबन्धकमनिराकरणम् * एवमपि संयोगस्याऽव्याप्यवृतित्वेन तददोषतादवस्थ्यात् प्रतियोगिव्यधिकरणस्य तस्य तथात्वं वाच्यमिति गौरवम् । * जयलता * वच्छंदकगारवमापद्यते । किञ्च एवमपि .. समवायन नीलं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन नील-नीलजनकतेज:संयोगान्यनरत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिनाकाभावस्य प्रतिश्यकत्वकल्पन:पि, संयोगस्य = जन्यसंयोगत्वावच्छिन्नस्य अव्याप्यवृनित्वेन = स्वाभावसमानाधिकरणत्वेन, तदोषतादवस्थ्यात - व्याप्यवृत्तिनीलरूपान्तपादामजस्य तदवस्थत्वात, नीलजनकतेज:संयोगवत्यपि कपाले नीलजनकतेजःसंयोगाभावस्य सचान, नील-नीलजनकतज:संयोगांभयसन नादृशान्यतरत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकामारस्यायोगात् । न ह्युभयसत्चदशायामन्यतराभायः प्रतिपादयितुं दास्यते । अनः पुनरपि पत्रकारपवे नीलमपरत्र व नीलजनकाग्निसंयोगस्नत्रावचिनि व्याप्यत्ति नीलं न स्यादिति दोषो वज्रलेपापित एव । तनिराकरणकृतं च प्रकृते समापन नीलं रूपं प्रति स्वाश्रयसगवतत्वसम्बन्धन प्रतियोगिन्यधिकरणस्य तस्य = नील-नजनकतेज:संयोगान्यतरत्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य अत्यताभावस्य तधात्वं = प्रतिबन्धकत्वं वाच्यं = स्वीकार्यम । नीलजनकतंज संयोगवनि कपाले वर्तमानस्य नीलजनकतंज:संयोगाभावस्य स्वप्रतियोगियधिकरणत्वाभावेन तनावयविनि घटादा स्वाश्रयसमवनस्वसम्बन्धेन तादृशान्यनरत्याच्छिन्नप्रतियोगिनाकस्य प्रतियागिन्यधिकरणाभावस्याइसत्वाना नीलरूपोत्यादस्पान्याहतप्रसरत्वम् । न हि प्रतिबन्धकासत्त्वदशायां स्वकार'कलापात्कार्य नात्पद्यत इति शक्यते बकुम् । एवं पूर्वोक्तदापनिराकरणेऽपि तब मते प्रतिबन्धकतावच्छेदकदारीरकुक्षी गौरवं प्राप्तम् । समवायन नीलं प्रति मया स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलतररूपस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते त्वया तु स्वाश्रयस भवेतत्वसमरन्धान प्रतियोगिव्यधिकरणस्य नील-तजनकतंज:संयोगान्यतरत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकरयान्त्यन्नाभावस्य प्रतिबन्धक. त्वमुपयत इति त्वत्पक्षे गौरवं स्फुटमेव । न च प्रतिबध्यतावच्छेदकस्यैव प्रतिबन्धकामायकार्यतावच्छेदकल्वात प्रतिवध्यताबन्छन्दकगौरवस्यैव दांपत्वं न तु प्रतिबन्धकतावच्छंदकगौरवस्येति न कश्चिदोष इति साम्प्रतम्, तथापि समवायेन नीलं प्रति स्वसमवायसमचनत्वसंसर्गणनालस्य कारणत्वेन नीलाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया अक्तत्वात् । न हि कारणाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्प्स्यते मनीषिभिः किन्तु निबन्धकाभावस्यैव कारणलम् । किश्चैत्र मति समवायन नीलं प्रति स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलरूपस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वमापद्येत देवानाम्प्रियस्येति प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धघटकीभूतं स्वाश्रयत्वमपि कालिकेतरसम्बन्धेन वाच्यम् । ततश्च मम्बन्धकृतं गौरवमपि । शरीरकृतं अर्धकृतं उपस्थितिकृतश्च गौरवं स्फुटत्त्वान्नाय दश्यते । लाघवानुराधन नालतरादेः नदधेतुत्वं विहाय नीलाभाबादेः तथात्वीपगमे तु विपरीतमेव गौरवमिति 'भग्नं । व्रतं नैव तप्ता च वासना' इति न्यायापातः इति न किश्चिदतत । तादशान्यतरत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव कैसे रहेगा ? कपाल नादशान्यतगभान का आश्रय न होने पर उसमें समवेत घट स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्ध से तादृशान्यतरत्वावछिनप्रतियोगिताक अभाव का, जो अवयवी में नील रूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक है, आयय नहीं होने से वहाँ व्याप्यवृत्ति नील रूप की उत्पनि मुमकिन हो जायेगी। अत: नील के प्रति तादृशान्यतराभाव को ही प्रतिबन्धक मानना संगत है। - बमपि इति । तो यह भी असंगत है, क्योंकि संयोग अन्याप्यवृति गुण होने की वजह जिस कपाल में नीलरूपजनक अग्निसंयोग रहता है वहाँ उसका अभाव भी रहने से नीलरूपजनकाग्निसंयोगवाले कपाल में नील रूप का एवं नीलरूपजनक अग्निसंयोग का भी अभाव रह जायेगा । इस तरह कपाल में उभयाभाव सिद्ध होने पर तादृशान्यतराभाव तो रहेगा ही। अतः पुनः स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्ध में घट में प्रतिबन्धक की उपस्थिति होने की वजह उस घट में नील रूप की उत्पत्ति न हो संकंगी । इसके निराकरणार्थ पदि ऐसा कहा जाय कि ---> 'तादृशान्यतराभाव भी प्रतियोगिन्यधिकरण हो तभी नील रूप का प्रतिबन्धक हो सकता है। प्रस्तुत में कपाल में रहनेवाला तादृशान्यतगभाव प्रतियोगिव्यधिकरण नहीं है किन्तु प्रतियोगिसमानाधिकरण है, क्योंकि कपाल नीलजनक अग्निसंयोग का आश्रय होने में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से सदृशान्यतर (= नीलजनक अमिसयांग) घट में रहता है । घट में स्वाश्रयसमवेतन्वसंबन्ध से वर्तमान तादशान्यतराभाव प्रतियोगिव्याधिकरण नहीं होने से नील रूप की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक हो सकता नहीं है' <-तो यह भी अनुचित है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नील रूप के प्रति स्वसमचायिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलतर रूप को प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा स्वाधयसमवेतत्व संसर्ग स प्रतियोगिच्यधिकरण नील-नीलजनकाप्रिसंयोगान्यतगभाव को प्रतिबन्धक मानने में गौरव है। अतएव यह गौरवग्रस्त प्रतिवध्य

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