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.: मध्यमस्याहादरहस्य खण्ड: ३ . का.५
* चित्ररूपनादप्रारम्भः *
रूपान्तरमभ्युपगच्छतः, नीलादिप्रतीतेवयवनीलादिनैवोपपत्तेः । 'नीलादिसामग्रीसत्वात्तत्र नीलादिकमपि कुतो नोत्पद्यत' इति चेत् १ (न), स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकत्वात् ।
-ॐ जयलता * नैयायिक - वैशेषिकी चित्रे = अतिरिक्तचित्ररूपरमवायिनि घटे न समवायेन रूपान्तरं नीलपीतादिकं अभ्युपगच्छतः । अत: 'चित्रमंकमनेकञ्च प्रामाणिक बदन इत्याद्यभिधानमपाकमेव, अनभ्यगताभिधानाचात् । समवायन चित्ररूपविशिष्ट नीलगातादिकं. रूपान्तरं यदि नास्ति तदा 'वटा यमत्र नालस्तत्र व पीन' इत्यादिप्रतीतिः कथमुपपद्यत ? इत्याशङ्कायामाह -> नीलादिप्रातः = अवयविविशेश्यकनीलादिप्रकारकधियः स्वसमवायिसमवंतत्वसम्बन्धन अवयवनीलादिना एवं उपपनः । यधा जपाकुसुमसंयुन स्फटिक रक्तिमाप्रतीत: स्वसमवायसंयोगलक्षणपरम्परासंसर्गेण जपाकुसुमरकरूपेणवीपपनेनं शुक्ले स्फटिक समवायन रक्तरूपं स्वीक्रियते सधैव नाल-पीतादिकपालममवते चित्रघंट नालादिप्रतीतः स्वसमवायिसमबेतत्त्वलक्षण - परम्पगसम्बन्धन कमालनालादिवर्गच महतनं चित्रबटे समवायन नालादिकं रूपान्तरमभ्युपगम्यत इति भावः ।
ननु समवायेन रक्त नीलादिकं प्रति म्यममवायिसमवेतत्वसम्बन्धन रक्त-नीलादः कारणत्वाद्रक्तावयवशून्य स्फटिक रक्तरूपानुत्पादो युक्तः तत्सामग्रीविहान परन्तु नील-पीनादिकपालजन्य चित्रे घंटे समदायन नीलादेरनुत्पादो न युक्तः, तत्र स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नालांतः सत्त्वादित्याशवन कश्चिच्छकते > नीलादिसामग्रीमत्त्वात् = समवायेन नीलादेः सामग्दा: स्वसभवाधिमगवतत्वसम्बन्धन नीलादिस्पलयानाः सन्तान नत्र -- चितवमजिनि च यमायेन नीलादिकमपि कुतो नोत्पद्यते ! चित्ररूपमित्र नीलादिकमपि घटे समयायेना भ्युपगन्तुमुचितं. स्वसामग्रीबलायातस्य सुरगुरुग्णापि निराशमशक्यत्वादिनि माङ्कादायः । तत्र मामविकल्यमुपदर्य नीलादग्नुत्पनि दृढयति -> स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलेतररूपादेः समवायन नीलादिक प्रति प्रतिवन्धकत्वादिति । स्वादाबंग्य नीलंतररूपादेः समवायिनि पानादिकयाले समवनस्य चित्रघटस्य स्वसमवायिसमवेतत्वसंसगंण नालेतररूपविशिष्टत्वान्न नत्र समवायन नीलादिकं जायत प्रतिबन्धकाभावस्थाऽपि कारणत्वान
और वैशपिक चित्रवर्णविगिर घर में नील, पीत आदि अन्य वर्ण का स्वीकार करते नहीं हैं। अतः वे एक-अनेक चित्ररूप को मान्य करते नहीं हैं। चित्र घट में यह इस भाग में नील है, उस भाग में पीन है' इत्यादि जो प्रतीति होती है, उसकी उपपनि नो घटावयच में कपाल के नील, पात आदि रूप के द्वारा स्वाश्रयसमवतत्वसंबन्ध में भी हो सकती है। स्व = कपालगत नील, पीत आदि रूप, उमका आश्रय = कपाल, उममें ममवेन है घट । इस तरह कपालीय नील, पीत आदि रूप स्वायसमक्तत्वसम्बन्ध में घर में रह कर नादृशातीनि और व्यनहार को उत्पन कर सकने हैं। अतः नदर्थ अवयवी घट में नील, पीन आदि वर्ण का स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
* चित्रपवादस्यल* नीला, इति । यहाँ यह शंका हो कि -> 'घट में चित्र रूप की उत्पनि के लिए जैसे पटावयव = कपाल में रहने वाले अनेक नील. पीत आदि रूप सामग्री है वह तो घर में नाल, पीत आनि रूप की उत्पनि के लिए भी समान ही है । अतः घर में चित्रवर्ण की भाँनि नील, पीत आदि रूप भी उत्पन्न होने चाहिए, न कि केवल चित्र का' - तो वह निगधार है, क्योंकि नील रूप की उत्पत्ति के प्रनि नीलेनर रूप प्रतिबन्धक है। प्रतिबन्धकतावच्छंदकसंबंध है स्वममयायि. समवेतत्य 1 स्वपद मे अभिमन कपालीप नीलता (पीत, रक्न आदि का के समचार्या कपाल में गए ममत्रत होने से कपालीय नीलेतर रूप स्वसमवायिसमवेतत्वसंबन्ध में घट = अवयवी में रहता है । प्रनिरन्धकतावच्छंदक मंबन्ध में पर प्रतिबन्धकविशिष्ट होने की वजह प्रनिरध्य नील रूप की समय सम्बन्ध से उसमें उत्पत्ति हो मकनी नहीं है । घट में नील रूप ममपाय संबन्ध में तभी उत्पन्न हो सकता है, जब घट के अवपत्र में नीलनर रूप न द्वा, क्योंकि पदाचया में नीलनर म.प होने पर वह स्वसमवायिसमवतत्वसंबन्ध में घट में रह जाने में घट में समाय संबन्ध में नील मप की उत्पनि में प्रतिबन्धक बनना है। इस तरह चित्र घट में ममवाय सम्बन्ध से पीन रूप की भी उन्पान नहीं हो सकती, क्योकि चित्र घट के अपयर कपाल में पीननर नील, रक्त आदि) रूप समवेत होने की वजह वह स्वसमवायिसमवतत्वमबन्ध में घट = अश्वर्या में रहता है। पीन रूप का पीतता कप प्रतिबन्धक होने में उस घट में समवाय संबन्ध से पीत रूप की भी उत्पत्ति हो नहीं मकती। अतः वहाँ केवल चित्र रूप की ही उत्पत्ति होगी, न कि नील, पान आदि रूप की भी । प्रतिभकाभान भी मामगी में