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किसी भी सिद्धान्त के लिये आता है। इन अर्थों को देखने से यह ज्ञात होता है कि अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है, जो अनेक दृष्टियों, अनेक सीमाओं तथा अनेक अपेक्षाओं में विश्वास करता है। अनेकान्तवाद चूँकि तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त है। इसलिए इसे समझने के लिये जैन तत्त्वमीमांसा पर नज़र डालना अनिवार्य है। जैन तत्त्वमीमांसा में जैन आचार्यों ने परमतत्त्व पर विचार करते हुए उसे द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, सत्, वस्तु आदि नामों से सम्बोधित किया है। उन लोगों ने उसे परिभाषित करते हुए कहा है- 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु'२ अर्थात् वस्तु के अनन्त धर्म या लक्षण होते हैं। उन लक्षणों में से कुछ विधि रूप में होते हैं और ज्यादा निषेध रूप में। वस्तु के विधि धर्म वे होते हैं, जो उसमें होते हैं और निषेध धर्म वे होते हैं, जो उसमें नहीं होते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि वे धर्म जो वस्तु में नहीं होते हैं वे भी उसके धर्म माने जाते हैं, क्यों? किसी भी वस्तु को जानने के लिये मात्र उसके विधि-धर्म की ही जरुरत नहीं होती है बल्कि उसके निषेध-धर्म को जानना भी आवश्यक होता है। निषेध को जाने बिना किसी वस्तु का सही और निश्चित बोध नहीं हो सकता। उदाहरणस्वरूप- किसी व्यक्ति के हाथ में किताब है और कोई दूसरा व्यक्ति यह कहता है कि सामनेवाले व्यक्ति के हाथ में किताब नहीं बल्कि पेंसिल है। यहाँ पर कौन ठीक है, यह कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि दोनों व्यक्ति अपने को ठीक मानते हैं। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति सही निर्णय करेगा जिसे किताब और पेंसिल के बीच पाये जानेवाले निषेधों का बोध होगा, जो यह बतायेगा कि किताब के अमुक धर्म होते हैं और पेंसिल के अमुक धर्म होते हैं। चूँकि व्यक्ति के हाथ में पायी जानेवाली वस्तु में किताब के धर्म हैं, पेंसिल के धर्म नहीं हैं, पेंसिल से इसका निषेध है इसलिए यह पेंसिल नहीं है किताब है। इस तरह किसी भी वस्तु का दुनिया की अन्य सभी वस्तुओं से निषेध होता है इसलिए वस्तु में पाये जाने वाले विधि-धर्म तथा अन्य वस्तुओं के धर्मों के निषेधों को मिला करके अनन्त धर्म बन जाते हैं।
जब जैन तत्त्वमीमांसा में यह प्रतिपादित हुआ कि किसी भी वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं तो यह बात सामने आयी कि किसी एक वस्तु का पूर्ण बोध होने का मतलब है विश्व की सभी वस्तुओं का बोध होना, क्योंकि कोई भी वस्तु निषेध रूप में विश्व की सभी वस्तुओं से सम्बन्धित होती है। अत: सिद्धान्त बना कि- “जो एक को जानता है वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एक को जानता है। इस सिद्धान्त में यह कहना कि सबको जानता है वह एक को जानता है सरल है; किन्तु जो एक को जानता है वह सबको जानता है, ऐसा कहना अत्यन्त कठिन या असम्भव-सा लगता है। किसी एक वस्तु को कोई व्यक्ति पूर्णत: तभी जान सकता है जब उसके सभी विधि और निषेध धर्मों को भी वह जानता हो। किसी वस्तु के सभी विधि एवं निषेध धर्मों को जाने बिना कोई व्यक्ति उसे पूर्णत: नहीं जान सकता है। सामान्य व्यक्ति किसी वस्तु
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