________________
८३
जयकीर्ति के गुरुभ्राता महिमाहेम की परम्परा में हर्षविजय, कल्याणसागर और कीर्तिधर्म हुए। ३३ इसी प्रकार जयकीर्ति के शिष्य प्रतापसौभाग्य और दानविशाल से दो अलग-अलग शिष्य परम्पराएँ चलीं। ३४ मुनि प्रतापसौभाग्य की परम्परा में बीसवीं शताब्दी के प्रमुख जैनाचार्य जिनकृपाचन्द्रसूरि हुए। महोपाध्याय विनयसागर ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इनकी गुरु-परम्परा दी है, ३५ जो इस प्रकार है
जयकीर्ति
1
प्रतापसौभाग्य
1
अभयचन्द्र
1
पं० अमृतसोम
युक्ति अमृत जिनकृपाचन्द्रसूरि
|
६
वि०सं० १९७२ में इन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ और वि०सं० १९९४ में पालिताणा में इनका निधन हुआ । इनकी उपस्थिति में ३४ साधुओं का समुदाय था। इनके निधन के समय इनकी परम्परा के ७० साधु-साध्वी थे। इनकी परम्परा के कुछ शिष्यों के नाम ज्ञात हो सके हैं जो इस प्रकार हैं— जयसागरसूरि, पं० आनन्दमुनि, उपा० सुखसागर, वाचक रायसागर, पं० जीतसागर, मयासागर, हेमसागर, विवेकसागर, मगनसागर, वर्धनसागर, उदयसागर, मंगलसागर, मतिसागर, कीर्तिसागर, तिलकभद्र आदि ।
आचार्य जिनकृपाचन्द्रसूरि आगम साहित्य के विशिष्ट ज्ञाता थे। बीकानेर स्थित रांगडीचौक में इनका विशाल उपाश्रय विद्यमान है। इनके पट्टधर जिनजयसागरसूरि प्राकृत और संस्कृत साहित्य के प्रमुख विद्वान् थे । ३७ इनके द्वारा संस्कृत भाषा में रचित जिनकृपाचन्द्रसूरिचरित्र नामक कृति प्राप्त होती है इसके अतिरिक्त इन्होंने कुछ ग्रन्थों का हिन्दी में भी अनुवाद किया था। जिनजयसागर के वि०सं० २००२ में निधन के पश्चात् उपाध्याय सुखसागरजी ने कीर्तिरत्नसूरिशाखा का नेतृत्व सम्भाला। जैन साहित्य के संरक्षण और प्रकाशन के क्षेत्र में इन्होंने अपूर्व योगदान दिया। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता, खण्डहरों का वैभव, खोज की पगदंडिया, शत्रुंजयवैभव आदि प्रमुख कृतियों के रचनाकार मुनि कान्तिसागरजी महाराज उपाध्याय सुखसागरजी के ही शिष्य थे । २८ सितम्बर १९७० ई० में जयपुर में मुनि कान्तिसागर जी का देहान्त हुआ ।
आज इस परम्परा में कोई साधु विद्यमान नहीं है । " बल्कि कुछ साध्वियाँ हैं जो मोहनलाल जी महाराज की परम्परा के श्रीजयानन्द मुनि की निश्रा में विचरण कर रही हैं । ४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org