Book Title: Sramana 2001 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 222
________________ २१६ पाठकगण इससे निःसन्देह लाभान्वित होंगे। स्मारिका के मुख पृष्ठ पर ही शान्तिभाई का भव्य चित्र भी प्रकाशित है। सर्वश्रेष्ठ कागज पर मुद्रित इस स्मारिका को अत्यन्त नयनाभिराम रूप में प्रस्तुत कर स्व० शान्तिभाई के पुत्रों ने उन्हें सच्ची श्रद्धाञ्जलि प्रस्तुत की है। इसका मूल्य स्वाध्याय ही रखा गया है जिससे अधिकाधिक लोग इससे लाभान्वित हो सकें। धूर्ताख्यान : अनुवादक-सम्पादक : डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव; प्रकाशक- साहित्य वीथी प्रकाशन, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश, प्रथम संस्करण १९९५ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ २६४; मूल्य ५०/- रुपये। जैन साहित्यकारों में आचार्य हरिभद्रसूरि का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके द्वारा रचित विभिन्न कृतियों में से एक- धूर्ताख्यान प्रसिद्ध व्यंगकाव्य है। यह ५ आख्यानों में विभाजित है। इसमें विभिन्न व्यंग कथाओं के माध्यम से विभिन्न वैदिक - पौराणिक कथाओं/मान्यताओं का उपहास किया गया है। इसके प्रथम आख्यान में ब्रह्मा के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से सृष्टि की उत्पत्ति, अप्राकृतिक दृष्टि से कल्पित जन्म कथायें, शिव की जटा में गंगा का सिमटना, ऋषियों और देवताओं के असम्भव और विकृत रूप की मान्यता का निरसन है । द्वितीय अध्यान में अण्डे से सृष्टि की मान्यता, सम्पूर्ण विश्व का देवता के मुख में निवास, द्रौपदी स्वयंवर के समय एक ही धनुष में पर्वत, सर्प, अग्नि आदि का आरोप, हनुमान एवं जटायु के जन्म सम्बन्धी असम्भव कल्पनाओं की आलोचना है। आगे के तीन आख्यानों में भी इसी प्रकार की विभिन्न पौराणिक मान्यताओं का उपहास किया गया है। डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव ने इस ग्रन्थ के अनुवाद की भूमिका में लिखा है कि “ आचार्य हरिभद्र ने पुराणों की कथा कल्पना को मिथ्या भ्रान्ति मानकर उनका व्यंगात्मक शैली में निराकरण करने में प्रकाण्ड पाण्डित्य का परिचय दिया है। उन्होंने इस ग्रन्थ के माध्यम से अन्यापेक्षित शैली में असम्भव, मिथ्या, अकल्पनीय और निन्द्य आचरण की ओर ले जाने वाली बातों का प्रत्यख्यान कर स्वस्थ, सदाचार - सम्पन्न और सम्भव आख्यानों का निरूपण किया है।" डॉ० सूरिदेव जी का उक्त कथन इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का हार्द है । प्राकृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ का सरल हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर सूरिदेव जी ने हिन्दी जगत् का उपकार किया है। पुस्तक में घटनाओं सम्बन्धी कई रेखाचित्र भी दिये गये हैं जो इसे और भी रोचक बना देते हैं। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण त्रुटिरहित है। यह सुन्दर कृति सभी के लिये समान रूप से पठनीय एवं संग्रहणीय है । वीरप्रभुनां वचनो, लेखक - रमणलाल शाह, प्रकाशक- श्री मुम्बई जैन युवक संघ, ३८५, सरदार वी०पी० रोड, मुम्बई- ४००००४; प्रथम संस्करण- जनवरी २००० ई०, पृष्ठ ८+१४०; मूल्य- ५०/- रुपये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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