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जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोशप्रकरण में जिनपूजाविषयक - नागदत्त कथा की प्रकाशित है जो इस प्रकार है
चक्रपुर नगर के राजा महासेन और रानी पद्मश्री निर्ग्रन्थ प्रवचन के श्रद्धालु और जिन पूजारत धार्मिक थे। उनके मेघरथ नामक धर्मात्मा पुत्र था। उसका बत्तीस सुन्दर राजकन्याओं से विवाह हुआ था। एक दिन चतुर्दशी के पोषधोपवास में द्वार बंद कर रात्रि में भूमि पर सोया हुआ था जिसे काले नाग ने डस लिया। विष व्याप्त होने से वह पंचत्व प्राप्त हो गया। प्रात: काल शैयापालक ने द्वार खोलकर उसे मरा हुआ पाया। सर्वत्र हाहाकार छा गया, राजा ने निर्विष कर जीवन दान करने वाले को हजार ग्राम और लाख सोनैया देने की घोषणा की। गारुड़िक लोग आकर प्रयत्न करने लगे। यथाशक्ति प्रयत्न करते उन्होंने निम्नोक्त गाथाओं की बात कही और राजकुमार को जीवित करने का निष्फल प्रयत्न किया
पादांगुठे पृष्ठे गुल्फे जानुनि रांग नाभितटे । हृदये स्तनेअथ कण्ठे पवन गतौ नयनयोः क्रमशः ॥ भ्रशंख श्रवणेष्वय शिरसि च जीवोहि वसति जन्तूनाम् । तत्रैवच याति विषं सर्वेषां तनु भृतां नूनम्॥ प्रतिपदमारम्य तिथिं क्रमो ह्ययं भवति दक्षिणे भागे । पुंसस्तथाङ्ग नायावामे समुद्दिष्टम्।।
शरीर के अंगों पर तिथि विभाग से पुरुष-स्त्री के विष व्याप्त अंग पर छार मलने से निर्विष हो जाना बतलाया। राजाज्ञा से मंत्र, जड़ी-बूटी सभी प्रयोग किये गये। गारुड़िकों ने ललाट के उर्द्ध नस पर प्रयोग किया। वाम नासिका छेदन, चार अंगुल डोरा बंधन, नाभि पर छार प्रक्षेप आदि विष उतारने के तत्कालीन गारुड़िक प्रचलित प्रयोग सब निष्फल हुए। सुबुद्धि मंत्री ने कहा- आप ज्ञानी हैं, मरा हुआ कभी जीवित नहीं होता, आखिर अन्तिम क्रिया अग्नि संस्कार अगर चंदन काष्ठ द्वारा किया गया।
सब परिवारादि को शोक व्याकल देखकर उन्हें बोध देने के लिए मेघरथ साधु रूप में उपस्थित हुआ। परिचय पूछने पर देव ने प्रकट होकर कहा- मैं तुम्हारा पुत्र मेघरथ भवनपति निकाय के दक्षिण श्रेणी में धरणेन्द्र हुआ हूँ। पौषध में मर के वैमानिक में उत्पन्न होता किन्तु विष व्याप्त होने से भवनपति में उत्पन्न होकर तुम्हारे अनुराग वश यहां आया हूँ। हे माता! शोक दूर करो। पद्मश्री ने कहा इन बहुओं का क्या होगा? देव से कहा इन्हें अपने पास ले जाओ।
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