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व्यंग्य के सम्बन्ध में हमारी धारणा मोटे तौर पर यह रही है कि व्यंग्य-सृजन आधुनिक युग की चीज है। प्राचीन वाङ्मय में व्यंग्य लेखन इस रूप में नहीं हुआ, न हो सकता था, क्योंकि तब की मानसिकता बहुत कुछ क्लासकीय थी । व्यंग्य लिखने के लिये जो उत्फुल्ल- उन्मुक्त हल्की-फुल्की विनोदी - व्यावहारिक मानसिकता होती है, हमारे आचार्य रचनाकारों को शायद बहुत नहीं सुहाती रही होगी। प्राचीन वाङ्मय का जो सृजनात्मक कृतित्व है भी, उस पर शास्त्रीयता का कुछ ऐसा दबाव है कि वह अधिक ही गरिष्ठ होकर रह गया है। इसलिए मेरा ख्याल था कि आज की दृष्टि से जिसे हम व्यंग्य - उपन्यास कहते हैं, वह शास्त्रीय भाषाओं में शायद ही मिल सके। हाँ, लोकभाषाओं. में इसके होने की सम्भावना हो सकती है। हास्य और व्यंग्य लोकजीवन में ही तो जीते हैं। पर हमारा प्राचीन लोकभाषा-साहित्य हमारे लिये बन्द खजाने को तरह रहा है ।
ऐसे में आचार्य हरिभद्रसूरि की रचना 'धूर्ताख्यान' ने मुझे बहुत पुलकित किया। यह सही अर्थों में एक व्यंग्य उपन्यास है। आज की दृष्टि से भी, और अपने ऐतिहासिक सन्दर्भ में, ऐतिहासिक और तात्त्विक दृष्टि से भी। आचार्य हरिभद्र का काल ईसा की आठवीं-नवीं शती है। यह भारतीय भाषाओं में पर्याप्त प्राचीन है। तब के किसी लेखक द्वारा रचित किसी कृति का आज के साहित्यिक मापदण्डों पर खरा उतरना कुछ मामूली बात नहीं है। यही आचार्य हरिभद्रसूरि की विशेषता प्रकट करने के लिये पर्याप्त है।
'धूर्ताख्यान' बहुत सीमित फलकवाली एक छोटी रचना है। यह कुल पाँच छोटे आख्यानों में विभक्त है। ये अलग-अलग आख्यान भी अपने-आप में पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के दो-दो हिस्सों में बँटे थे। इस प्रकार लेखक ने इसे बहुत समझदारी से छोटे-छोटे टुकड़े में विभाजित किया है। 'टाइम' और 'स्पेस' की ऐसी चेतना तो आज के लेखकों
भी मुश्किल से मिलती है। यह कृति कहने और सुनने की शैली में कथित या लिखित है। चार धूर्तराज और एक धूर्त नेत्री उज्जयिनी के एक उद्यान में इकट्ठे हुए हैं। घनघोर बारिस हो रही है। पूरा शहर और वातावरण वर्षा से अस्त-व्यस्त त्रस्त है। ऐसे में धूर्तराजों का धन्धा तो चलने से रहा। इनके साथ इनके पाँच-पाँच सौ अनुचर भी हैं। ये सभी ठण्ड से ठिठुरे और सिकुड़े हैं। भूख इन्हें परेशान किये हुए है। ऐसे में भरपेट भोजन कैसे मिले, यह समस्या है। कौन कराये इतने लोगों को भोजन ? और कहाँ से और कैसे ? यही समस्या है।
ये पाँचों धूर्त इस समस्या का समाधान इस रूप में ढूँढ़ते हैं कि सभी धूर्त अपनेअपने जीवन की अनुभव-कथा सुनायें। जो धूर्त सुनायी गयी कथा को सत्य नहीं मानेगा, उसे पूरी धूर्त - मण्डली को भोजन कराना होगा। सत्य नहीं मानने के लिये यह आवश्यक माना गया कि श्रोता धूर्तों में से कोई एक, सुनायी गयी जीवन कथा की सम्पुष्टि पुराणों, रामायण, महाभारत या अन्य आर्ष ग्रन्थों के उद्धरणों और प्रसंगों से कराये। साथ ही यह भी माना गया कि जो धूर्त अपनी सुनायी गयी कथा की सम्पुष्टि खुद ही प्रामाणिक
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