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The World wide Fund for Nature 374 Living Planet Report 2000 में कहा है कि आज वस्तुओं की जितनी मांग बढ़ रही हैं, उससे लगता है कि पृथ्वी उपग्रह में जितने संसाधन हैं, उनसे ३० प्रतिशत अधिक संसाधनों की आवश्यकता होगी। इसमें आगे कहा गया कि यदि अविकसित देशों के व्यक्ति भी विकसित देशों के लोगों के समान अपनी आवश्यकताओं की अभिवृद्धि करते रहेंगे तो उनकी मांग की पूर्ति के लिये और दो पृथ्वी उपग्रहों की आवश्यकता पड़ेगी। रिओ डि जेनेरो में सन् १९९२ में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में यह भाव व्यक्त किया गया कि "विश्व में पर्यावरण के निरन्तर होने वाले ह्रास का मुख्य कारण विकसित राष्ट्रों की बढ़ती हुई माँगें तथा उनका अत्यधिक उपयोग है, यदि इसे नियन्त्रित नहीं किया गया तो पर्यावरण का संकट बढ़ता ही जायेगा । "
इस परिस्थिति में जैनधर्म के मूल्यों की क्या भूमिका है? इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में कहा, "जहाँ पर भौतिक पदार्थों के अत्यधिक संग्रह एवं उनके उपयोग की भावना रहती है, वहाँ पर परिग्रह एवं तृष्णा की वृद्धि हो जाती है।" तृष्णा से मनुष्य के मन में और अधिक वस्तुओं के संग्रह करने की भावना जगती है। इस प्रकार की अति संग्रह की भावना अशान्ति में परिणत हो जाती है। केवल अपने स्वार्थ को ही बढ़ाते चले जाना मानवीय उच्च भावनाओं यथा करुणा आदि को भी विनष्ट कर देता है। आज जो उपभोक्ता सामग्री की माँग निरन्तर बढ़ती जा रही है, उससे कोई साधारण व्यक्ति भी अछूता नहीं रह सकता है। जब उस व्यक्ति की माँगों की पूर्ति नहीं होती तो उसके मन में चिन्ता एवं क्षोभ पैदा हो जाता है। इसके कारण सामान्य आमदनी का व्यक्ति कभी-कभी अपना मानसिक सन्तुलन खो देता है। चोरी एवं डाके इत्यादि भी बढ़ जाते हैं। उपभोक्तावाद साधारण व्यक्ति को सम्पन्न व्यक्तियों का अनुकरण करने को बाध्य करता है, जिससे उनका मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक अधःपतन हो जाता है। बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद व्यक्ति के जीवन में अशान्ति, तनाव, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि पैदा कर देता है।
प्रदूषण का प्रकोप
आज अनेक देशों में प्रदूषण का प्रकोप इतना बढ़ गया है कि वहाँ विशुद्ध जल एवं वायु का मिलना भी दुर्लभ हो गया है। रासायनिक खाद के अत्यधिक प्रयोग से हिंसा तो होती है, जमीन की उर्वरा शक्ति का भी क्षरण हो रहा है। कई देशों में नदियों का पानी इतना दूषित हो गया है कि वह पीने के लायक नहीं रहा । कारखानों से निकलने वाले धुएँ एवं गन्दगी का भी पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ रहा है। पृथ्वी शिखर सम्मेलन में इस बात पर भी चिन्ता व्यक्त की गयी कि प्रकृति के संसाधनों का भण्डार धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। आज दुनिया के ७-८ समृद्ध देश ८० प्रतिशत संसाधनों का
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