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भारतीय दर्शन में मानव जीवन के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं। साध्य या आदर्श - दृष्टि से विचार करने पर चारों पुरुषार्थों में से मोक्ष को ही समस्त भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शनों में साध्य के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि सारे प्रयास जिसके लिये हैं वह आध्यात्मिकता की प्राप्ति है। यह एक तथ्य है कि सभी पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एक दूसरे से स्वतन्त्र और निरपेक्ष होकर नहीं रह सकते। मोक्ष के लिये धर्म आवश्यक है, धर्म के लिये शरीर, जो कि काम से पूरा होता है और उसकी पूर्ति के लिये अर्थ भी समान रूप से उपयोगी है। अतः परम साध्य मोक्ष है और इस साध्य की प्राप्ति के लिये अलग-अलग साधनों का वर्णन किया गया है। समूचे भारतीय दर्शन का लक्ष्य भी इस परम पुरुषार्थ की प्राप्ति तथा परम साध्य के उपायों का विशद् व गहन विश्लेषण करना है। यद्यपि विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों तथा परम्पराओं ने अपनी-अपनी दृष्टि से विशिष्ट साधना मार्गों की स्थापना की; किन्तु साधना मार्ग के प्रतिपादन में इनमें पर्याप्त मतवैभिन्न है फिर भी उनका परम लक्ष्य उस परम ध्येय को पाना है जिसके लिये मनुष्य निरन्तर प्रयत्नशील रहा है।
मानव मस्तिष्क के इतिहास में भारतीय विचारधारा का एक अत्यन्त शक्तिशाली और भावपूर्ण स्थान है। भारतीय विचारधारा की अवैदिक परम्परा का जैन दर्शन तथा आगमिक-परम्परा का शैव दर्शन भी इस चिन्तन भूमि में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जैन दर्शन श्रमण-परम्परा के अनुरूप तथा शैव दर्शन आगमिक परम्परा के अनुरूप अपने-अपने साधना मार्गों का वर्णन करते हैं और उससे कहीं ज्यादा साधना मार्गों के प्रतिपादन में अपनी गम्भीरता दिखाते हैं।
समग्र जैन आध्यात्मिक साधना को समत्व की साधना कह सकते हैं। जैन दर्शन की ऐसी विचारणा है कि व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बौद्ध हो या अन्य किसी मत का लेकिन जो भी समभाव का होगा वह निःसन्देह मोक्ष प्राप्त करेगा। जैन आचार दर्शन के अनुसार सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप- ये साधना पथ हैं और जब ये सम्यक् चतुष्टय अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को उपलब्ध कर लेते हैं तो वही अवस्था साध्य बन जाती है। साधना पथ और साध्य दोनों ही आत्मा की अवस्थाएँ हैं। आत्मा की सम्यक् अवस्था साधना पथ है और पूर्ण अवस्था साध्य है।
आगमिक - परम्परा के शैव सिद्धान्त की साधना के सन्दर्भ में ऐसी मान्यता है। कि यह संसार मलों से आबद्ध है। जब तक मलों से पूर्ण निवृत्ति नहीं होगी, दुःख की पूर्वरता बनी रहेगी । अतः शैव सिद्धान्त का शिव जीवात्माओं की भलाई के उद्देश्य से जगत् की रचना करता है और जीवात्माओं को दुःखों से मुक्ति दिलाना चाहता है। शिव के इस उद्देश्य के पीछे उसका लक्ष्य जीव को सृष्टि प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रेरित करना है। अतः शिव लीला द्वारा उसे मायोत्पादित शरीर, प्रदान
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