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उन्होंने कहा कि जितने वचन के प्रकार हो सकते हैं, उतने ही नय के प्रकार हो सकते हैं, जितने नयवाद हो सकते हैं और उतने मत-मतान्तर भी हो सकते हैं। ज्ञान और क्रिया में एकान्तिक आग्रह को चुनौती देते हुए सिद्धसेन ने घोषणा की कि ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं। ज्ञान और क्रिया का सम्यक संयोग ही वास्तविक सुख प्रदान कर सकता है। जन्म और मरण से मुक्ति पाने के लिये ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं। इस प्रकार के कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त आचार्य सिद्धसेन द्वारा प्रतिष्ठापित किये गये हैं। सिद्धसेन ने वास्तव में जैन दर्शन के इतिहास में एक नये युग की स्थापना की।
उनकी रचनाओं में सन्मतितर्क ही ऐसी रचना है, जिसके कर्तृत्व को लेकर कोई विवाद नहीं है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों आम्नाय इसे सिद्धसेन दिवाकर की ही कृति मानते हैं। इनकी अन्य रचनाएँ न्यायावतार, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका तथा कल्याणमन्दिरस्तोत्र को लेकर आज भी विद्वानों में मतभेद है। अर्वाचीन विद्वान् न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति नहीं मानते हैं। इसके पक्ष और विपक्ष में उठाये गये अनेक प्रश्नों का सतर्क समाधान शोध-प्रबन्ध में प्रस्तुत किया गया है।
अपने इस शोध-प्रबन्ध में हमने सन्मतितर्क में निहित ज्ञानमीमांसीय और तत्त्वमीमांसीय विषयों की तर्कानुप्राणित व्याख्या के लिए समूचे शोधप्रबन्ध को छ: अध्यायों में बाँटा गया हैप्रथम अध्याय : भारतीय दार्शनिक चिन्तन में जैन दर्शन का स्थान
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के प्रथम अध्याय में तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में जैन दार्शनिक चिन्तन का सामान्य परिचय है जिसके अन्तर्गत जैन दर्शन का उद्भव एवं विकास, २४ तीर्थङ्करों की परम्परा, जैन-आगम साहित्य, प्रमाणमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा, कर्ममीमांसा और आचारमीमांसा की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की गयी है। द्वितीय खण्ड में जैन दार्शनिक चिन्तन की विशिष्टता, अनेकान्तवाद का अर्थ, स्वरूप, अनेकान्तवाद और एकान्तवाद, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद, विभिन्न दर्शनों में अनेकान्तवाद, अनेकान्तवाद की व्यापकता और अनेकान्तवाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की गयी है। तृतीय खण्ड में जैन दार्शनिक चिन्तन के ऐतिहासिक विकासक्रम, आगमिक युग, अनेकान्त स्थापना युग, दार्शनिक समीक्षा युग की विस्तृत विवेचना है। द्वितीय अध्याय : सिद्धसेन दिवाकर और उनकी कृतियाँ
द्वितीय अध्याय में कुल छः खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में जैन दार्शनिकों में सिद्धसेन दिवाकर का स्थान, द्वितीय खण्ड में उनका जीवन वृत्तान्त, तृतीय खण्ड में सिद्धसेन की चार महत्त्वपूर्ण कृतियाँ- सन्मतितर्क, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, न्यायावतार और
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